काव्य भाषा : शरद ऋतु का गुलाबी एहसास –

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शरद ऋतु का गुलाबी एहसास

बिछने लगे हैं
दूब के गलीचे
आस-पास के खाली मैदानों में..
दिखाई देने लगी है
पंखुड़ियों,पत्तों और टहनियों पर
मोती सी चमकती ओस की नन्हीं बूंदे
घुलने लगी है फिजाओं में
सौंधी-सौंधी महक…।
बदल गया है
दिन रात के ढलने और उदय होने का समय…।
घटने लगा है उमस तपन का एहसास…
होने लगी हैं
तन से लेकर मन के भीतर तक
शरद ऋतु की सुखद अनुभूतियाँ…।

तभी तो
गुलाबी ठंड की ताज़गी
ग्रहण करने के लिये
निकल पड़ते हैं हम हर रोज़ ही
भोर की आहट के साथ
घरों की दहलीज़ के बाहर
सैर करने के लिए….।

मित्रों,
आत्मीय निवेदन है
सहेज लो
शरद ऋतु के शीतल एहसासों को…
बाँध के रख लो
स्मृतियों की गठरी में
शरद ऋतु का यह पावन काल…।
ताकि,ग्रीष्म काल में भी
होता रहे हमें ताज़गी का एहसास…
और लेते रहें हम
शुद्ध वातावरण में
निर्मल निश्चल श्वांस….।

चरनजीत सिंह कुकरेजा
भोपाल

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