

देहदुर्ग में विराजमान दिव्य दुर्गाशक्ति
नवरात्रि पर्व का भारतीय संस्कृति धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म में विशेष महत्व है । विज्ञान जहां तर्क पर आधारित है , वहीं अध्यात्म का आधार आत्मसाक्षात्कार है। पाश्चात्य जगत की तथाकथित वैज्ञानिक दृष्टि जहां आकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाती है। वहां भारतीय अध्यात्म का मौलिक रूप प्रारम्भ होता है । ऋषियों ने यथा ब्रह्मांडे तथा पिंडे कहकर शरीर को उच्चकोटि का घटक कहा है । जिसका विकास जन्म और मृत्यु के बीच फैला हुआ है । ज्ञान,भावना और कर्म के त्रिविध रूप में प्रस्फुटित होने वाली चेतना का यह शरीर मंदिर है । इस तुच्छ देह दुर्ग में वह अनन्त चेतनामयी भगवती मां दुर्गा विराजमान हैं ।ब्रह्म, प्रकृति, आत्मा सबका केंद्र यह मानव देह ही है। चेतना भगवती की सत्ता उसमें सर्वत्र व्याप्त है इसी से उसका गौरव है। जिसदिन चेतना शक्ति इस देह दुर्ग का परित्याग कर देती है उसदिन इसका रुप श्मशान घाट में स्पष्ट होता है। पंच तत्वों में विलय ही इसकी गति है । इस देह दुर्ग को केंद्र में रखकर भारतीय दर्शन का सारा दिव्य ज्ञान स्पष्ट है। दुर्गा अर्थात् दिव्य परा शक्ति जो हमारे शरीर में विद्यमान है। हमारे ऋषियों की वाणी है कि–
ब्रह्मांड का लघु रूप पिण्ड ही है,
यह रहस्यमय दुर्ग।
जो पात्र सा धारण करता है,
शाश्वत शक्ति को,उत्तम ऊर्जा को।
इस देह दुर्ग की जो स्वामिनी है,
जो गति है, जीवन है,वह दुर्गा है।
त्रिनेत्री, त्रिकालदर्शी, बहुभुजी सर्वव्यापक,
अस्त्रधारक,विघ्नविनाशक।
सिंह आरूढ , उत्पत्ति पालक, संहारक ।
दिव्य ज्योतिर्मयी,सर्वशक्तिमान,
सर्वसामर्थ्यवान,वही सर्वत्र परिव्याप्त है,
एक ही आकाश ज्यों शत-शत जल घटकों में।
होकर प्रतिबिंबित, असंख्य रुपाकारों में,
अखण्ड, अस्पर्श्य, निराकार ,
और एक बना रहता है,
वैसे ही आदिशक्ति,बहुरुप,बहु आकार ,
बहुत सीमाओं का सम्पादन करते हुए भी
निर्गुण निराकार अनादि अनन्त अनेक में एक ,
खण्ड में अखण्ड,देह में अदेह,
पुष्प में सुगंध सी, अग्नि में ताप,जल में शीतलता,
अन्न में तृप्ति सी,अभासित में भासमान बनी रहती है।
देवों और दैत्यों में भी विद्यमान,
अति चंचलता चित्त की जो भीतर से खींचकर,
बहुमुखी बनाती हैं।
ज्ञान ,भावना और कर्म के त्रिविध रुप में,
प्रस्फुटित होने वाली,भव्य दिव्य,
चेतना का यह शरीर मंदिर है।
इस तुच्छ देह में वह अनन्त चेतना,
भगवती मां दुर्गा विराजमान हैं।
ब्रह्म, प्रकृति, आत्मा सबका केंद्र,
यह मानव देह ही है।
चेतना भगवती की सत्ता उसमें सर्वत्र व्याप्त है,
इसी से उसका गौरव है।
इसी दुर्ग को भेद कर , ज्ञान का प्रसाद देकर,
किंचित दोष को पावक में दाहक,
दयावान यानि देवता बनाती हैं।
यही श्री दुर्गा हैं।
यह शरीर ही दुर्ग है
जिसमें चैतन्य रुप रहकर आगे की यात्रा करनी है।
जो साधक आत्मज्ञानी हैं,
बुद्धि गुहा में छिपी शक्ति को जानते हैं।
वह अन्तर्अज्ञान का भेदन कर वैसे ही भासमान होते हैं, जैसे नक्षत्र लोक में भासमान सूर्य।
ब्रह्मांड का लघु रूप पिण्ड ही है,
यह रहस्यमय दुर्ग।
डॉ सरोज गुप्ता
सागर म प्र

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।
