काव्य भाषा : यादों में ही न रह जाएं – श्रीमती शेफालिका सिन्हा रांची, झारखंड

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यादों में ही न रह जाएं

बड़ा सा आंगन
आंगन के बाहर
मुस्कुराते फूलों की क्यारियां
कद्दू, करेला, नेनुआ के लत्तर
आम , अमरूद, केला के पेड़
खुली सी जगह
जो सब था हमारा
वहां न कोई कौरीडोर
और न बाल्कनी का था बंटवारा।

सूरज की किरणों के साथ
आती कांव कांव की आवाज़
आंगन में होता जमावड़ा
मानों उनका हो साम्राज्य।
कभी रोटी के टुकड़ों
तो कभी चावल के कणों के साथ
दादी रहती तैयार
हंसकर पूछती
आज करें, किसके आने का इंतजार?
वो समय था,जब अतिथि
किसी भी समय आ सकते थे
फोन करने की,न थी दरकार।

समय के साथ
आचार-विचार हो गए परिवर्तित
आबोहवा भी गई है बदल।
अब कौओं की नहीं आती आवाज़
दो-चार कौए नज़र आ जाएं
तो बहुत है।
लगता है,
समय के साथ कौए
पिंजरे में बंद
चिड़ियाघर की शोभा न बढ़ाएं
और हमारी यादों में ही
न रह जाएं।।

श्रीमती शेफालिका सिन्हा
रांची, झारखंड।।

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