

व्यंग्य
कैत की आए सो कई
बल्ले मियां! बड़ी देर से तुमाई चकचक सुन रहे हैं!हम जानते हैं तुम क्या थे? कपड़े का नाप लेते – लेते ज़मीनों का नाप लेने लगे,कपड़े काटते – काटते जमीनों के प्लाट काटने लगे, कपड़ों की चिंदी चुराते- चुराते सरकारी जमीनों को चुराने लगे ! अब दून तीन की फांक रहे हो! मैं गुरुवर को सुन रहा था जो एक पान की दुकान के सामने *झकझकाता सफेद कुर्ता पायजामा पहने गले में रुमाल डाले हाथ में गाड़ी की चाबी लिए घुमा रहे बल्ले मियां की क्लास ले रहे थे*। वे आगे बोले हम जानते हैं कि कितने बड़े धन्ना सेठ थे तुमाए पिताजी!अब तो तुम ऐसे बोल रहे हो जैसे बैंक भी तुम्हारी ही हो?
तुम नहीं जानते ये लक्ष्मी चलती फिरती है।अभी तुमने देखा क्या है बेटा। इतिहास जानते हो ?इतिहास बताता है कौन के पास कितनी लक्ष्मी थी और आज उनके पास लक्ष्मी तो लक्ष्मी अरे लक्ष्मी के आगे दिया जलाने वाले भी नहीं बचे, बचा सिर्फ उनका इतिहास में नाम। इतिहास में लिखा है कि किसी जमाने में इनके यहां क्या- क्या था उनके खंडहर बतलाते हैं कि इमारत जरूर बुलंद थी पर आज कुछ नहीं है। अरे उनके सामने तुम्हारी औकात ही क्या है? जितनी तुमने आज संपत्ति कमाई है उतनी तो उनके मुनीमों, कारंदों के यहां होती थी।तुम आज के मालगुजार आओ सो भैया उड़ा न करो “पायजामे” में ही रहो जो तुम्हारे यहां सिले जाते थे।आपने खूब कमा लिया बड़ी बात है, पर अब ऊपर ना देखो, धूल में मिलने में वक्त नहीं लगता। चोर जब तक पकड़ा नहीं जाता तब तक वह शहर का सबसे बड़ा साहूकार, ईमानदार कहलाता है पर जिस दिन पकड़ा जाता है मय ब्याज के सब निकल जाता है और जे जो तमंचा है आजकल बहुत से लोग टांगे हुए घूमते हैं पर चिड़िया मारने में भी कलेजे की जरूरत होती है। इधर की सरकार को तो तुम खिला पिला कर, रिश्वत देकर बहलाए रहिए पर उस अल्लाह मियां की सरकार को क्या करोगे? इधर तो तुम्हारी रिश्वतखोरी से काम चल जाता है पर उधर रिश्वतखोरी का कोई काम नहीं वह पाक है सो पाक है ।अरे तनक तो उसके खौफ से डरो, क्यों मरे जा रहे हो बेईमानी की माया जोड़ते हुए! अरे वह पचास साल पहले एक फिल्म आई थी *वक़्त* । उसमें देर नहीं लगी थी और पूरी हवेली जमीन में मिल गई थी। अरे बल्ले मियां आज इंसान में दम ही कितना है पैर के अंगूठे की चोट भी सीधा ऊपर पहुंचा देती है। ईमान की खाइए अधिक हाय- हाय में क्यों मरे जा रहे हो ? अरे अपने शहर के कई रईस रोड पर आ गए। एक वक्त था उनकी तू तू बोलती थी, नौकरों की इतनी संख्या होती थी कि रजिस्टर में उनकी हाजिरी डलती थी। पर अब उन्हें उंगलियों पर गिना जा सकता है। परंतु ईमान से और कछुए की चाल से चलने वाले शहर के कई संपन्न जो भले ही कोई वक्त दूसरों के यहां मुनीम रहे हों पर अब वे ही सब कुछ हैं। वे ही इस शहर के रईस हैं क्योंकि उन्होंने तुम्हारे जैसे किसी का गला नहीं काटा। तुमने तो माल काटने सरकारी जमीन तक काट के बेच दी, अब भले ही सरकार की नपाई में वह गरीब मारा जाए जिसकी जमीन नाप में चली जाए! पर तुम भी निपट जाओगे बचोगे तुम भी नहीं! सरकार जेसीबी से नीचे बात ही नहीं करती, सीधा चला देती है और आजकल कोई किसी की नहीं मानता न नेता की, ना अभिनेता की। कोई भी बीच में नहीं पड़ता क्योंकि उन्हें भी डर बना रहता है कि कहीं उनकी भी गर्दन ना फंस जाए वो इसलिए कि इस गोरखधंधे में बड़े आदमी वे भी बने हैं। पर तुम हमारे अपने लगते हो इसलिए समझा रहा हूं अपना फर्ज समझ कर।
अब अपनी मति से पर्दा हटाओ या ना हटाओ, हमारी बला से।
कैत की आए सो कई!
– आर के तिवारी
सागर

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।
