
बूढ़ा पेड़
हां निसंदेह
मैं आज बूढ़ा हो चुका हूं
कमजोर हो चुका हूं
मेरी टहनियां सारी कट चुकी हैं
मगर …..
यह मत भूलो कि-
मैं भी कभी हरा भरा था
और सुंदर जवान था
न जाने कितने पंछियों को
आसरा दिया मैंने
न जाने कितने पथिकों को
छांव दी मैंने
न जाने कितने प्रेमी जोड़ियों ने
प्रीत के डोर बुने मेरी गोद में
और उस डोर को मजबूत बनाया मैंने
जब मैं हरा भरा था
सबको जिंदगी देता था मैं
ऑक्सीजन बनकर हर प्राणियों में
प्राण सींचता था मैं
वक्त की बहुत मार खाई है मैंने
धूप छांव बरखा बादल
सब देखा है मैंने
मगर …..
कभी अपनी जगह से हिला नहीं मैं
ना कभी हताश और निराश बना मैं
आज भी गौर से देखो
देखो मेरे उसूल, मेरा स्वाभिमान
पत्थर बनकर मेरी जड़ को
संभाले हुए हैं, मुझे पकड़े हुए हैं
जिस दिन ये पत्थर
छोड़ देंगे दामन मेरा
उस दिन न रहूँगा मैं
न रहेंगे मेरे उसूल
न रहेगा मेरा स्वाभिमान
सब ध्वस्त हो जाएंगे
और मिट्टी में मिल जाऊँगा मैं
मगर सुनो जगवालों…
रात के अंधेरों में होने वाली कालाबाजारी
और दिन के सूरज में दिखने वाले
झूठे चमत्कारी
इन सब का हिसाब-किताब रखता हूँ मैं
चुपचाप उन सब को
अपनी बूढ़ी आँखों से देखता हूँ मैं
मगर …..
जब मैं मिट्टी में मिल जाऊँगा
उस दिन हिसाब दूँगा ऊपर वाले को
हिसाब का बही खाता…..
जो सदियों से लिख रहा हूँ मैं।
पदमा शर्मा ‘आंचल’
अलीपुर, पश्चिम बंगाल

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