
मेरे प्यारे पुष्प
न प्रपंच ना ही छलछंद
मेरे अंतर्मन का द्वंद्व।।
देखता जब भी तुम्हें
मेरे प्यारे सुमन,
पुनः प्रफुल्लित होता
मेरा व्यथित मन ।
नित तुम्हारे पास आऊं
तुम्हारी भांति मुस्कुराऊं।।
अवनि से अंबर तक
छाया अपार हर्ष,
बस हंसते रहो, करो-
नित नवल उत्कर्ष ।
निश्चित कुछ कहते हो
सदा प्रसन्न रहते हो ।।
कांटों में भी हंस-हंस
स्थिति से लड़ते हो,
कदाचन तभी देवों के
शीश पर चढ़ते हो ।
चाहूं दे दूं आशीष मैं भी,
बस हंसते रहें सभी ।।
नि:शब्द हूं मैं,
बस देखता रहूंगा,
कहना चाहूं पर
कुछ नहीं कहूंगा ।
न ही गीत न कोई छंद,
केवल अंतर्मन का द्वंद्व ।।
मेरे अंतर्मन का द्वंद्व ।।
– नवीन जोशी ‘नवल’
बुराड़ी, दिल्ली

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।
रचना को स्थान देने के लिए सहृदय आभार आदरणीय प्रधान संपादक श्रद्धेय देवेंद्र सोनी जी एवं समस्त टीम ‘युवा प्रवर्तक’ ।