
भला,ऐसे क्यों होता है
निर्वात में गूँजते हैं,
ठहाके,किलकारियाँ, वार्तालाप,
रुदन,सब कुछ, रिक्त घर में अब,
व्यवस्थित,अपनी जगह,चीजें पड़ी रहती हैं सब अब,
घर को साफ करना,प्रायः सहेजना नहीं पड़ता है अब,
दूर हो गये, छोड़ गये बच्चे ये नीड़, उड़ते हैं और रहते हैं ,अपने घर आकाश में दूर बहुत,हमसे,
एकाकी ,हम अपने घर में,
उनकी खुशबू समेटते हैं,
उनकी हँसी,रुलाई ,बहस ,सुना करते हैं, मन के कानों से,
उनको देखा करते हैं ,आँसू भरी
आखों से,
रो लेते हैं ,बच्चों के खालीपन से,
जी लेते हैं,उन अनुपस्थित दृश्यों को ,कल्पना की आंखों से
देखकर
अब और ऐसे, जिया जाता नहीं,
दर्द का ये घूँट ,
पिया जाता नहीं,
भला, ऐसा क्यों होता है,
सब घरों में ,
इस दुनिया में,
यहीं.
डॉ ब्रजभूषण मिश्र
भोपाल

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।
बहुत सुंदर। बधाई।