

काश!
पढ़ पाते हम आँखोँ की भाषा
आँखें
बोल देती हैं
मन के अनकहे शब्द…
खोल देती हैं
भीतर के सारे राज…
बस!!
आना चाहिए
हमें आँखों को पढ़ना..।
आँखें
कर देती हैं पर्दाफाश
भले-बुरे विचारों का…
जीवन में मिले
संस्कारों का….।
बस!!!
आना चाहिए
हमें ऑंखों को पढ़ना..।
आँखें
परख लेती हैं
व्यक्तित्व को
चरित्र को
बैरी और मित्र को
बस!!!
आना चाहिये
हमें आँखों को पढ़ना।
आँखें
मुस्कुराती हैं/डबडबाती हैं
छलछलाती हैं
चहकती हैं/महकती हैं जीवन भर
और फिर देखते ही देखते
हो जाती हैं
एकदम खामोश…।
तब
चाह कर भी हम
पढ़ नही पाते
एकटक शून्य में देखती
निर्जीव आँखों की भाषा…।
गौर करने पर
तैरता दिखाई देता है
उन मुर्दा आँखों में
बस एक ही प्रश्न
कि, क्यों नही पढ़ पाते हम
समय रहते
उनके मन की इबारत….?
क्यों खो जाते हैं हम
अपने सपनों की दुनिया में
सबसे बेपरवाह हो कर…?
आखिर
हमें उजालों से रूबरू करवाने वाली आँखों का भी तो-
हक बनता था
हमारे सपनों की दुनिया में हमारे साथ जीने का…।
काश!!
पढ़ पाते हम
वक्त रहते
अपनों की अपन्त्वता से भरी आँखें
तो हमें दिखाई दे जाता उनमें
उमड़ता-घुमड़ता स्नेह दुलार और प्यार…
गौर से देखते अगर हम
अपने बुजुर्गों की आँखों में
तो नजर आ जाती उनमें
हमारी फिक्र
जिसका जिक्र
वो कभी जुबान पर नही लाते है…
बस!!!
झुर्रियों भरी आँखों से
हमें निहारते हुए
हितैषी होने का फर्ज निभाते है।
सोचता हूँ अक्सर,
कि उंगली पकड़ कर
राह दिखाने वाली आँखे…
अपने अंतिम समय में
शून्य में क्यों खो जाती हैं…?
●
चरनजीत सिंह कुकरेजा,
भोपाल

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।

बेहतरीन रचना ।
आँखों के माध्यम से मानवीय संवेदनाओं की जीवंत अभिव्यक्त ।
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वाह कुकरेजा साहब, बहुत सुंदर। सच में हमें आना चाहिए। बहुत बहुत बधाई।