लघुकथा : स्टैच्यू -चरनजीत सिंह कुकरेजा भोपाल

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स्टैच्यू

“पापा…!पापा…जरा इधर तो आइए..”संजय ने ऊँचे सुर में भीतर आवाज लगाई।
“क्या बात है बेटा…”विश्वनाथन कमरे से अखबार हाथ में लिये धीमे-धीमे हॉल में आते हुए बोले..”क्या हुआ संजय…इतने क्रोधित क्यों हो रहे हो…”
“गुस्सा न करूं तो क्या करूँ….बताइए इतना सुंदर शो पीस कैसे टूट गया….अब बोलिये भी….आपको पता है न मैं घर की सजावट के लिये कहाँ-कहाँ से ये एंटीक पीस ले कर आता हूँ…इनकी कीमत का अंदाजा भी है आपको…”
विश्वनाथन ‘बेटा-बेटा’ही करते रह गए।उन्हें अनुभव था कि,क्रोधाग्नि में अपनी सफाई देने की दलीलों का घी डालने से आग बुझने की बजाय भड़क जाती है…।फिर भी साहस करते हुए इतना ही कह पाए…”वो सफाई करते हुए उस दिन सुनंदा से टूट गया था…”
“तो आपने उसी दिन मुझे क्यों नही बताया…छुपा ली उसकी गलती…पापा आप दिन भर घर पर रहते हैं,पर ध्यान नही रखते…बरामदे में देखो वाटर बॉडी में पानी खत्म है…पौधे सूख रहे हैं… वो देखिये छत पर जाल लगा है..सुनंदा से करवाते क्यों नही ये सारे काम…आपको तो कह ही नही रहे कुछ करने के लिए…कम से कम पीछे लग कर करवा तो लिया कीजिये …”
“बस दिन भर पेपर पढ़ लिया या टी.वी में खबरें सुन ली…. फोन पर दोस्तो यारों से बांते कर ली…कुछ पूछो तो *स्टैच्यू* बन जाते हैं….मेरी ओर ही देखते रहते हैं…अब जाइये भीतर…”
“क्या हुआ संजय…कम से कम आज के दिन तो पापा से नर्म लहजे में बात कर लेते..भूल गए क्या आज का दिन..”संजना ने संजय के हाथ में अपना लैपटॉप बैग थमाते हुए कहा “चलो…पहले ही देर हो चुकी है..।मुझे ऑफिस छोड़ते हुए जाना है तुम्हें।शाम को भी जल्दी आ जाना लेने..सारी तैयारियां करनी है…।”
संजय अब थोड़ा शांत हो चुका था…शायद कोस रहा था अपने आपको…।
“अच्छा पापा शाम को मिलते हैं..ध्यान रखना अपना..खाना डायनिंग पर लगा है,टाइम से खा लीजिएगा और सुनंदा आती होगी…बोलियेगा उसे संजय नाराज हो रहे थे..जरा ध्यान से काम किया करे…”इतना कहते ही संजना ने रोज की तरह अपने ससुर जी के पाँव छुए और संजय के साथ बाहर निकल गई।संजय पापा की तरफ देख कर बस ‘बॉय पापा’ ही कह पाया।
शाम को ऑफिस से जल्दी तो निकले थे पर शहर के ट्रैफिक की वजह से घर पहुंचते-पहुंचते अंधेरा घना हो गया था।वैसे भी दिन छोटे होने से शाम जल्दी हो जाती है।
“देखो संजना तुम मुझे कहती हो…सारे घर में अंधेरा पसरा है।पापा को लाइट ऑन कर देनी चाहिए थी न…”संजय ने घर के सामने गाड़ी रोकते हुए कहा।
गाड़ी से उतरते ही उसने पहले बरामदे को रौशन किया।संजना तब तक घर का ऑटोमैटिक दरवाजा खोल चुकी थी…।संजय ने भीतर के सारे बटन दबा कर अंधेरे के साम्राज्य का खात्मा कर दिया।
“पापा…अभी तक सो रहे हैं क्या…कमरे से बाहर तो आइए…माफ कर दीजिए सुबह हुई गुस्ताखी के लिये…”उसने एक याचक की तरह आवाज लगाई।
“अरे पहले मुझे हॉल में थोड़ी सजावट तो कर लेने दो…मैं उन्हें खुद बाहर ले आऊंगी..।”संजना ने पापा के कमरे की ओर जाते संजय को रोका…”लाओ वो केक लेकर आओ जल्दी…ये लो गुब्बारे फुला-फुला कर टांगो जरा ऊपर…ये चमकी भरा गुब्बारा तभी फोड़ना जब मैं पापा को कमरे से बाहर लाऊंगी…समझे..!और हाँ पैर छू कर माफी जरूर मांग लेना अपने सुबह के व्यवहार के लिए..और यह लो मोबाइल जो गाना इसमें सेट है हमारे आते ही उसे बजा देना”इतना कहते हुए वह ससुर जी के कमरे में प्रवेश कर गई।लाइट ऑन करते ही वह स्तब्ध रह गई।पापा व्हील चेयर पर सासु माँ की तस्वीर गोद में लिए बैठे थे…।वह अक्सर तन्हाई में असमय ही छोड़ कर चली गई जीवनसँगनी से दिल की बातें साझा किया करते थे।
“पापा अब तक नाराज हैं क्या…माफ कर दीजिए ना संजय को।आपको तो उसके स्वभाव का पता है ना.. *पल में तोला-पल में मासा* जैसा है संजय….चलिये मैं ले चलती हूँ आपको बाहर…यहाँ अंधेरे में गुमसुम बैठे हैं…” और इतना कहते-कहते वह व्हीलचेयर को बाहर ले आई…।एक जगह चेयर रोक कर वह टेबल पर केक सजाने में व्यस्त हो गई…।
व्हील चेयर के बाहर आते ही मोबाइल पर हैप्पी बर्थ डे वाला गाना बजने लगा…।
“हैप्पी बर्थ डे पापा”संजय ने उनके कदमों में बैठते हुए फूलों का गुलदस्ता उनके हाथों में थमाया..।
पर यह क्या…!गुलदस्ता तो उनके हाथों की पकड़ में आया ही नही।तुरंत नीचे गिर गया…। “पापा..पापा..क्या हुआ आपको…संजना इधर आओ जल्दी…” वह लगभग चिल्ला पड़ा..। संजना जो चमकी वाला गुब्बारा फोड़ने की तैयारी कर रही थी संजय की आवाज सुन पीछे मुड़ी।
दौड़ कर आई।उसे पापा *स्टैच्यू* बने एक ही मुद्रा में व्हील चेयर पर बैठे दिखे।संजय माफी मांगने के लिये उनके कदमों में निढाल सा बैठा था और पापा सासु माँ की फोटो को सीने से चिपकाए हुए उसे एकटक देखे जा रहे थे।
संजना भी उनकी ओर जड़ हुई नजरों से देखते हुए महसूस कर रही थी ….कि, इस घर का एंटीक पीस आज *स्टैच्यू* में तब्दील हो गया है।


चरनजीत सिंह कुकरेजा
भोपाल

3 COMMENTS

  1. Hamesha ki tarah very heart touching story hai ye story nai practically life meinsap beeti lagti hai aaj kal yahi samaj mein ho hi raha hai generation gap ka nam dekarkar ham bujurgo ka dil dukhate hai n baad mein pashchatap bhi karte hai

  2. दिल को झकझोरने वाली एक बहुत ही मार्मिक रचना।
    अपने आस-पास के सामाजिक
    यथार्थ को बयाँ करती आपकी लघुकथा प्रेमचंद जी की कहानियों की याद ताज़ा कर देती है।
    ⚘⚘⚘???????

  3. बहुत ही मार्मिक कुकरेजा साहब। बहुत बहुत बधाई। पर पढ़ कर बधाई नहीं रोने का मन कर रहा है।

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