

आज फिर
आज फिर सोचते सोचते
शाम हो गयी।
ज़िन्दगी में ऐसी शाम
तो अब आम हो गयी।
आज फिर अँखियों से
छलका अश्क़ों का जाम है
लेकिन फिर भी सजी
मेरे अधरों पे मुस्कान है।
कैसे मनाऊँ मैं जश्न
अपने ज़िंदा होने का
जब मेरा दिल ही बन बैठा
मेरे सपनों की शमशान है।
एक जमाना हुआ
जब चले थे नन्हे कदमों से
मंज़िल की तलाश में
भटक रहे हैं आज भी हम
उसी मंज़िल की आस में।
आज फिर आ पहुंचे हैं वहाँ
जहाँ बह रहा
एक दरिया है पास में
पर मन मे जाने कैसी
ये अतृप्त सी प्यास है।
आज फिर सजी
एक महफ़िल है
और एक हम हैं
कि हमको खुद
अपनी ही तलाश है।
– सुलक्षणा मिश्रा
लखनऊ

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।

बेहद शानदार रचना सुलक्षणा जी