काव्य भाषा : आज फिर – सुलक्षणा मिश्रा लखनऊ

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आज फिर

आज फिर सोचते सोचते
शाम हो गयी।
ज़िन्दगी में ऐसी शाम
तो अब आम हो गयी।
आज फिर अँखियों से
छलका अश्क़ों का जाम है
लेकिन फिर भी सजी
मेरे अधरों पे मुस्कान है।
कैसे मनाऊँ मैं जश्न
अपने ज़िंदा होने का
जब मेरा दिल ही बन बैठा
मेरे सपनों की शमशान है।
एक जमाना हुआ
जब चले थे नन्हे कदमों से
मंज़िल की तलाश में
भटक रहे हैं आज भी हम
उसी मंज़िल की आस में।
आज फिर आ पहुंचे हैं वहाँ
जहाँ बह रहा
एक दरिया है पास में
पर मन मे जाने कैसी
ये अतृप्त सी प्यास है।
आज फिर सजी
एक महफ़िल है
और एक हम हैं
कि हमको खुद
अपनी ही तलाश है।

सुलक्षणा मिश्रा
लखनऊ

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