काव्य भाषा : जो तुम अधूरा मिलन न रचते… -प्रियंवदा अवस्थी ,कानपुर

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जो तुम अधूरा मिलन न रचते…..

सुनो प्रिय…..

विरह कहती हूँ मैं…
हाँ ,,,विरह कहती हूँ मैं
क्योंकि तुम्हारे प्रेम में हूँ…..
तुम्हे क्या पता ?
देह की मेरु को
मृदु आलिंगन किए
विरह की सुप्त सर्पिणी
प्रीति की अबूझी धरा पर
कुंडली मारे
तब तक मौन बैठी रहती है ….
जब तक मिलन की प्यास
और आस दोनों ही
अपनी चरम त्रास तक न पहुँच जाए,,,,,
वह अंधेरों में कभी नही डसती
वह सिर्फ अंधकार को डसती है ….

सुनो ,,,,
तुम जो मुझमें होकर भी
मेरे से नही लगते,,,,
तेरे मेरे के इस द्वंद के मध्य
जो यह अधूरा मिलन न रचते,,,,,
क्या अनुभूत हो सकता था मुझे?
रस, गंध, स्वाद और स्पर्श?
कैसे समझ सकती थी मैं,,
देह से प्राणों का अबूझा संबंध…..
कहाँ सुन सकती थी मैं
स्वांसों की बदली हुई गति पर
ब्रह्मांड के प्रथम स्वर का
दिव्य नाद,,,
नख शिख तक श्रृंगार कर
साँझ की सिंदूरी चुनर ओढ़
ह्रदय की एक एक थाप पर
नृत्य कर सकते थे भला
प्रणयातुर रतिभाव…..

मन के आकाश पर मंडराते
श्यामल मेघों के मध्य
कहाँ से भला खिल खिल उठते
एक एक पृथक हो
इंद्रधनुष के सात रंग…….

निःसन्देह मैं विरह कहती हूँ
क्योंकि
जो तुम अधूरा मिलन न रचते
कदाचित ही समझ पाती
कि क्यों और कैसे?
बिना कुछ सिखलाये और समझाए
मिलन विरह के किनारों के मध्य
आविर्भाव होने के साथ ही
घाट घाट और बाट बाट पर
बलखाती लहराती
प्रीति के ढाई अक्षर लिखती
क्यों निकल पड़ती है एक नदी
अन्ततः सागर में समाहित हो जाने को,,,,,,

प्रियंवदा अवस्थी
कानपुर

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