‘बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा’ जीवन में मंथराओं की कमी नहीं – डॉ. वर्षा सिंह, सागर

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बुधवारीय स्तम्भ : विचार वर्षा

जीवन में मंथराओं की कमी नहीं
– डॉ. वर्षा सिंह

मुझे आज अचानक एक पुराना वाकया याद आ गया। उन दिनों मैं विद्युत विभाग के जिस कार्यालय में पदस्थ थी, वहां मैं शिकायत कक्ष की प्रभारी थी। तब कुछ शासकीय योजनाओं को संचालित करने के लिए कार्यालय में नोडल अधिकारियों की संविदा नियुक्तियां हुई थीं। उनमें से एक अधिकारी द्वारा अन्यत्र नियमित नौकरी पर जाने और नोडल अधिकारी के पद से इस्तीफा देने के कारण एक पद रिक्त हो गया था। मेरे कार्यालय प्रमुख ने मुझे उस पद पर कार्य करने के संबंध में पूछा, जिसे मैंने मना कर दिया। मना करने के दो कारण थे एक तो शिकायत कक्ष का मेरा कार्य सुचारु रूप से चल रहा था, दूसरे मैं जानती थी कि नोडल अधिकारी के उस रिक्त पद पर कल को ऊपर से कोई दूसरा अधिकारी नियुक्त कर दिया जाएगा और मुझे अनावश्यक डिस्टर्ब होना पड़ेगा।
मेरे द्वारा मना करने वाली बात जब मेरे एक असिस्टेंट को पता चली, तो वह बहुत विचलित हो उठा। कहने लगा – मैडम जी, आपने मना करके अच्छा नहीं किया। आपको बड़े साहब से ‘हां’ कह देना चाहिए था।
‘लेकिन क्यों ? जब मैं वह सेक्शन नहीं लेना चाहती हूं तो साफ़ क्यों न बताऊं ? फिर अपना ये कम्प्लेंट सेक्शन अच्छा है।’ मैंने कहा था।
तब मेरा वह असिस्टेंट मुझे समझाने लगा था – ‘अरे मैडम जी, यहां तो वही पुराना फर्नीचर है। टेबिल क्लॉथ वाली पुरानी टेबल, बाबाआदम के ज़माने का गोल कंप्यूटर मॉनिटर, सड़ियल की-बोर्ड और ये टूटी-फूटी कुर्सियां.. इनकी कीलों में रोज़ कपड़े फटते हैं। जबकि वहां नोडल अधिकारी के चैम्बर में सारा फर्नीचर एकदम नया है.. गोदरेज कंपनी का। एलसीडी डिस्प्ले वाला नया कंप्यूटर मॉनिटर है। अपने यहां कूलर है, वहां एसी है।’
एक बारगी मुझे भी लगा कि इसकी बात में दम तो है। फ़र्नीचर से ले कर स्टेशनरी और कम्प्यूटर तक सभी एकदम पुराने और बेहद ऊबाऊ हैं।

तभी मेरे असिस्टेंट ने अपनी बात आगे बढ़ाई – ‘उस सीट पर सप्लायर भी आते हैं। अपने को चाय-पानी के लिए अपने वॉलेट खाली नहीं करने पड़ेंगे। मैडम जी, आप सीनियर भी हैं । साहब से कह दीजिए कि आपको नोडल अधिकारी बना दें। अभी भी समय है, साहब ने अभी और किसी को वह सीट नहीं ऑफर की है।’
मुझे उसकी यह बात खटकी। मैंने अपने विवेक से काम लेते हुए अपने उस असिस्टेंट को उल्टा समझाया ऐसे लालच में कभी नहीं फंसना चाहिए, अपनी कमाई की चाय ज़्यादा अच्छी होती है। ग़लत ढंग से की गई कमाई कभी न कभी ज़रूर धोखा देती है।
और फिर उस घटना के दो माह बाद …. जैसाकि ऑलरेडी इस्टीमेटेड था मेरे सेक्शन का भी रिनोवेशन हो गया। पूर्वयोजनानुसार सारा फर्नीचर बदल दिया गया। एलसीडी डिस्प्ले वाला नया कंप्यूटर आ गया। कूलर हटा कर एसी लगा दिए गए। यदि मैं उस समय अपने उस असिस्टेंट की बातों में आ कर नोडल अधिकारी का प्रभार ले लेती तो बहुत बड़ी टेंशन में फंस जाती। मेरा असिस्टेंट अपनी ऊपरी कमाई के लालच में मुझे मेरा लाभ दिखा कर मुझे भी कलंकित कर सकता था।
आज मैंं चिंतन करती हूं तो मुझे लगता है कि
ऐसे सलाहकारों और रामकथा की मंथरा दासी में शायद ज़्यादा फ़र्क़ नहीं… रामकथा में दासी मंथरा ने अपनी रानी कैकेयी को जो सुझाव दिए थे वे उसकी दृष्टि में रानी कैकेयी और उसके पुत्र भरत के लिए तो लाभप्रद थे ही, उससे कहीं अधिक स्वयं मंथरा के लिए लाभकारी थे। भरत राजा बनते तो कैकेयी राजमाता और मंथरा राजमाता की ख़ास सेविका। दूर का निशाना मगर सही दिशा में एक ग़लत मंसूबे के साथ। अकसर लोग यह भूल जाते हैं कि ग़लत- सही के बीच की रेखा को मिटा कर बढ़ाए गए क़दम ठोकर ज़रूर खाते हैं।
महाराजा दशरथ की तीन रानियों कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी में कैकेयी अधिक सुंदर, युद्ध संचालन में योग्य थी। एक बार राजा दशरथ के साथ युद्ध मैदान में गई कैकेयी ने रथ के पहिए की कील निकलने पर कील के स्थान पर अपनी उंगली लगा कर राजा दशरथ के प्राणों की रक्षा की थी। तब दशरथ ने प्रसन्न हो कर कैकेयी से दो वरदान मांगने को कहा था। कैकेयी ने वे वरदान उसी समय नहीं मांगे थे, बल्कि बाद में कभी अन्य समय लेने का कह कर दशरथ को वचनबद्ध कर लिया था।
कालांतर में दशरथ ने जब अपने ज्येष्ठ पुत्र राम के राज्याभिषेक की बात की तो अपने स्वार्थ की पूर्ति को ध्यान में रख कर कैकेयी की अंतरंग दासी मन्थरा ने आकर कैकयी को यह समाचार सुनाया। यह सुनकर कैकयी आनंद में डूब गयी और समाचार सुनाने के बदले में मंथरा को अपना एक आभूषण भेंट किया। वाल्मीकि रामायण के अनुसार –
इदं तु मन्थरे मह्यमाख्यातं परमं प्रियम् ।
एतन्मे प्रियमाख्यातं किं वा भूय: करोमि ते ।।
रामे वा भरते वाहं विशेषं नोपलक्षये ।
तस्मात्तुुष्टस्मि यद्राजा रामं राज्येऽभिषेक्ष्यति ।।
न मे परं किञ्चिदितो वरं पुन: प्रियं प्रियार्हे सुवचं वचोऽमृतम् ।
तथा ह्यवोचस्त्वमतः प्रियोत्तरं वरं परं ते प्रदादामि
तं वृणु ।। (वाल्मीकि रामायण २ । ७। ३४-३६)

अर्थात् मन्थरे ! तूने मुझको यह बड़ा ही प्रिय संवाद सुनाया है, इसके बदले मैं तेरा और क्या उपकार करूं? यद्यपि भरत को राज्य देने की बात हुई थी, फिर भी राम और भरत में मैं कोई भेद नहीं देखती । मैं इस बात से बहुत प्रसन्न हूँ कि महाराज कल राम का राज्याभिषेक करेंगे । हे प्रियवादिनी ! राम के राज्याभिषेक का संवाद सुनने से बढ़ कर मुझे अन्य कुछ भी प्रिय नहीं है । ऐसा अमृत के समान सुखप्रद वचन सब नहीं सुना सकते । तूने यह वचन सुनाया है, इसके लिये तू जो चाहे सो पुरस्कार मांग ले ,मैं तुझे देती हूँ।

किन्तु मंथरा ने वह आभूषण एक ओर फेंक दिया और कैकयी को अनेक उदाहरण दे कर अपना मंतव्य प्रकट करते हुए भांति-भांति से समझाया। फिर भी कैकयी मंथरा की बात नहीं मानकर कहती है कि यह तो रघुकुल की रीत है कि ज्येष्ठ पुत्र ही राज्य संभालता है और मैं कैसे अपने पुत्र के बारे में सोचूं? राम तो सभी के प्रिय हैं।

यथा वै भरतो मान्यस्तथा भूयोऽपि राघव: । कौसल्यातोऽतिरिक्तं च मम शुश्रूषते बहु ।।
राज्यं यदि हि रामस्य भरतस्यापि तत्तदा ।
मन्यते हि यथाऽऽत्मानं तथा भ्रातॄन्स्तु राघव: ।।
(वाल्मीकि रामायण २। ८। १८ -१९)

अर्थात् मुझे भरत जितना प्यारा है, उससे कहीं अधिक प्यारे राम है , क्योंकि राम मेरी सेवा कौशल्या से भी अधिक करते है । रामको यदि राज्य मिलता है तो वह भरत को ही मिलता है, ऐसा समझना चाहिये, क्यों कि राम सब भाइयों को अपने ही समान समझते है ।
इस पर जब मन्थरा महाराज दशरथ की निन्दा करके कैकेयी को फिर भड़काने लगी, तब तो कैकेयी ने बड़ी बुरी तरह उसे फटकार दिया –
ईदृशी यदि रामे च बुद्धिस्तव समागता ।
जिह्वायाश्छेदनं चैंव कर्तव्यं तव पापिनि ।।

तब मंथरा ने तरह-तरह के दृष्टान्त सुना कर केकैयी से अपनी बात मनवा ही ली। अंततः कैकयी ने मंथरा की सारी बातें मान लीं और कोप भवन में जाकर राजा दशरथ को अपने दो वरदानों की याद दिलाई। राजा दशरथ ने कहा कि ठीक है वरदान मांग लो। तब कैकेयी ने अपने वरदान के रूप में राम का वनवास और भरत के लिए राज्य मांग लिया। यह वरदान सुनकर राजा दशरथ मानसिक रूप से आहत हो गए, चूंकि वे वचनबद्ध थे अतः वचनों से विमुख होना संभव नहीं था।

‘रामचरितमानस’ के अयोध्याकांड में भी तुलसीदास ने लिखा है कि मंथरा दासी के कहने पर ही राम के राज्याभिषेक होने के अवसर पर कैकेयी की मति मारी गयी और पुत्र भरत के राजतिलक की चकाचौंध भरी कल्पना में डूब कर उसने राजा दशरथ से दो वरदान मांगे। पहले वर में उसने भरत का राज्याभिषेक और दूसरे वर में भरत की राजगद्दी को निष्कंटक बनाने के कुटिल उद्देश्य से राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास मांग लिया।

नामु मंथरा मंदमति चेरी कैकइ केरि।
अजस पेटारी ताहि करि गई गिरा मति फेरि।।
अर्थात् मन्थरा नाम की कैकेई की एक मंदबुद्धि दासी थी, उसे अपयश की पिटारी बनाकर सरस्वती उसकी बुद्धि को फेरकर चली गईं।

रचि पचि कोटिक कुटिलपन कीन्हेसि कपट प्रबोधु।
कहिसि कथा सत सवति कै जेहि बिधि बाढ़ बिरोधु।।
अर्थात् इस तरह करोड़ों कुटिलपन की बातें गढ़-छोलकर मन्थरा ने कैकेयी को उलटा-सीधा समझा दिया और सैकड़ों सौतों की कहानियां इस प्रकार सुना दीं कि कैकेयी का मन विचलित हो उठा।
परिणाम से सभी अवगत ही हैं। जहां एक ओर दशरथ शोकाकुल हो मृत्युशैय्या पर पहुंच गए। आज्ञाकारी राम वनगमन कर गए। भरत यह अनर्थ स्वीकार न कर राम की चरणपादुका के सेवक बन अयोध्या की सुरक्षा करते रहे। राम के साथ उनकी अर्धांगिनी सीता भी वनवासरत हो गईं जहां से लंकापति रावण ने उन्हें अपहृत कर लिया। … वहीं दूसरी ओर कैकेयी को वैधव्य और कलंकित नारी का तमगा हाथ लगा। मंथरा तो दासी थी, दासी रही। उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ा।
रामचरितमानस में तुलसीदास ने दासी मंथरा की ओर से यह चौपाई लिखी है –
कोउ नृप होइ हमैं का हानी ।
चेरि छाड़ि अब होब की रानी।।
अर्थात् – मुझे कोई लेना-देना नहीं, मैं तो दासी की दासी ही रहूंगी। रानी जी, आप सोचिए कि आप का क्या होगा।

तो क्या मंथरा ने निःस्वार्थ भावना से सुझाव दिया था। नहीं… ऐसा नहीं था। मंथरा का स्वयं का स्वार्थ निहित था उसकी इस चाल में। वह जानती थी कि भरत के राजा बनने पर कैकेयी राजमाता बन जाएंगी और मंथरा कैकेयी की निकटस्थ होने के कारण अयोध्या की प्रभावशाली महिला बन जाएगी।
रामकथा के इस प्रसंग का मर्म यही है कि चाहे कोई कितना भी सगा व्यक्ति क्यों न हो, उसके सुझाव पर स्वयं चिंतन किए बिना उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए। वर्तमान समय में ‘मंथराओं’ की कमी नहीं है। शुभचिंतक बन कर हमारी निजी ज़िन्दगी में सेंध लगाने वाले ‘मंथरा’ रूपी व्यक्ति बहुत घातक होते हैं। इन्हें पहचानना बहुत ज़रूरी है। हमारे जीवन में अनेक ऐसे अवसर आते हैं जब हमारे निकटस्थ लोग हमारे हितरक्षक बन कर हमें हमारा लाभ दिखा कर तरह-तरह की समझाइश देते हैं। किन्तु सुझाव के अमल में लाए जाने से होने वाले लाभ और हानि का स्वयं चिंतन करना बहुत ज़रूरी होता है। यदि परिणाम से ज़्यादा दुष्परिणाम की आशंका नज़र आए तो कभी स्वयं ‘कैकेयी’ नहीं बने और किसी भी ‘मंथरा’ की सलाह को अमल में न लाएं।

और अंत में प्रस्तुत है मेरा यह दोहा –

अंतर्मन के खोल कर रखिए सारे द्वार ।
हर पहलू पर गौर से पूरा करें विचार।।

सागर, मध्यप्रदेश

1 COMMENT

  1. बहुत ही सुंदर दृष्टान्तों के माध्यम से आपने गलत मार्ग के भावी परिणामों का उल्लेख किया है।बधाई आदरणीया जी।

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