काव्यभाषा : सबके हिस्से में नहीं…! – रत्नदीप खरे ,झाबुआ (म.प्र.)

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सबके हिस्से में नहीं…!

फ़िर किसी मज़लूम,बेबस को तबाही दे गया।
एक गुंडा कल अदालत में गवाही दे गया।

ले गया बढ़वा के फ़िर से पेशियां मुंसिफ़ से वो,
शाम को आकर के दिनभर की उगाही दे गया।

है ये मुमकिन भर के इसमें कल मैं पानी पी सकूं,
कोई तो है जो मुझे खाली सुराही दे गया।

सबके हिस्से में नहीं आती कभी भी चाहकर,
सरहदों पर जो शहादत इक सिपाही दे गया।

हम तो जीते जी गुनहगारों में शामिल हो गए,
और वो मरकर के अपनी बेगुनाही दे गया।

कल मिला था धूप का वो थोक व्यापारी मुझे,
स्याह रातों को हमारी और स्याही दे गया।

जो हमारा हक़ था हमको मिल नहीं पाया मगर,
वो मुझे खै़रात जो मैंने न चाही दे गया।

हम ग़ज़लकारी का जिसको रहनुमा समझा किये,
वो ग़लत शे’रों पे मेरे वाहवाही दे गया।

– रत्नदीप खरे ,झाबुआ (म.प्र.)

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