काव्यभाषा : अन्नदाता का इस धरा पर मान होना चाहिए -डॉ संगीता तोमर इन्दौर (म. प्र)

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अन्नदाता का धरा पर मान होना चाहिए

रूखी हथेली माथे पर टिकाए
असीमित पीड़ा हृदय में लिए
निर्जन नेत्रों से टकटकी लगाए
देखता आकाश को
जब ना पाता टोह बादलों की
ताकता प्यासी धरा को ,
खुलते होठों सी ,दरारों को
आस में डूबता, तैरता
अन्नदाता नहीं याचक बन जाता
दबी आवाज़ में प्रार्थना करता
धरती की गोद में सोते बीजों को
बहलाता कहता अभी सोते रहो
समय नहीं आया , सूर्य देखने का
बरसेगा अमृत जब अंबर से
होगा तुममें प्राण संचार
उसी आस प्रार्थना का
हम सबको मिलता परिणाम
भंडार सदा भरा रहता
होता जनकल्याण
ऐसे अन्नदाता का धरा पर मान होना चाहिए

हर ऋतु में सजग है
पूस की रात में जागता, ठिठुरता
जेठ की गर्मी में झुलसता
बेमौसम बारिश की मार सहता
जगत का ऊर्जा स्तोत्र है
पर भूखे है बच्चें उसके
टपकती छत के तले
भीगती किताबें बच्चों की
कर्ज में डूबे ज़मीन खलिहान
घर की दीवारें भी है मायूस
फिर भी अपनी धरा पर गर्वित है
ऐसे अन्नदाता का धरा पर मान होना चाहिए

बदलती दुनिया से
कदमताल करता
नई तकनीकों की सीढ़ी चढ़ता
अपनी नींव संभाले
जड़ों को सींचता
ऐसे अन्नदाता का धरा पर मान होना चाहिए

डॉ संगीता तोमर
इन्दौर (म. प्र)

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