काव्यभाषा : तरंगे विद्दमान हैं सृष्टि की हर शै में-चरनजीत सिंह कुकरेजा भोपाल

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“तरंगे विद्दमान हैं सृष्टि की हर शै में”

*तरंगे*
होती हैं जल में
थल में..
पल में..
*तरंगे* होती हैं
पवन में
हवन में
नमन में…।
*तरंगे* होती हैं…
भौतिक अभौतिक दृष्टि में
सारी सृष्टि में…..।
*तरंगे* होती हैं…
हमारी वाणी में ,जिव्हा में
हमारे जन्मे अजन्मे हर संस्कार में….
विचार में
व्यवहार में…
जो बनाती है घेरा हमारे चारों ओर…।
प्रभावित होते हैं हम
इन अदृश्य *तरंगों* के आदान-प्रदान से…।
मन में उपजते सुविचारों की *तरंगें*
देती हैं हमें उचित दिशा की ओर
बढ़ने का संकेत…।
और इसके विपरीत–
नकारात्मक *तरंगे*
प्रभावित करती हैं
हमारी बौद्धिक क्षमता को।
इसलिए हमें चाहिए कि,
हम रखें सदैव सकारात्मक सोच…
ताकि,ग्रहण कर सकें हम
प्रकृति से सारी प्रेरणात्मक *तरंगें*
और रख सकें खुद को
उमंगित तरंगित हर क्षण…,
क्षणभंगुर जीवन के समाप्त होने के अंतिम पल तक…।

चरनजीत सिंह कुकरेजा
भोपाल

1 COMMENT

  1. ?????भौतिक विज्ञान के तरंग सिद्धांत का आध्यात्मिक रूपान्तरण,उसके प्रकार और प्रभावों की काव्यात्मक प्रस्तुति,वाह_वाह।?????

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