काव्यभाषा : नील-गगन -चन्द्रकान्त खुंटे लोहर्सी,जांजगीर चाम्पा(छग)

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नील गगन

आज सोया था आँगन में
दृष्टि पड़ी नील गगन में।
चाँद – तारे ऐसे बिखरे मानो
पुष्प खिले हो बगियन में।

शशि की निर्मल चाँदनी
फैली थी भूमियन में।
ऐसा लगता वसुधा मानो
नहाई हो दुधियन में।

नक्षत्र अगणित बिखरे थे
गृह – ताड़ित सी चमकते थे।
भूमि तल निरखते मानो
दूरबीन लगे हो नैनन में।

श्वेत आभा शशि बिखेरती
परिधि फैली अनन्त में।
दोनो पाक्षिक घटते – बढ़ते
ज्यो लगे हो चिंतन में।

श्वेत अनुपम चन्द्र विशाल
गोल – मुख बने गगन में।
तरु सी फैली इंदू – अनन्त
नक्षत्र खिले हो डलियन में।

शशि- किरन उगती – डूबती
नित सेवा की मिशन में।
हृदय – हर ले जाते मानो
परी उतरती हो गगन से।

चन्द्रकान्त खुंटे
लोहर्सी,जांजगीर चाम्पा(छग)

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