
सबक-ज़िन्दगी के:
वास्तविक सुख
“सुख” एक ऐसी मानसिक अवस्था है जिसका बाहरी भौतिक वस्तुओं,साधनों या सुविधाओं से कोई लेना – देना नहीं है। हमारी आधुनिक फिल्मों,साहित्यक और संगीत ने प्रकारांतर से यह प्रचार किया कि खूब मस्ती करने, ऐश्वर्यपूर्ण जीवन जीना ही सुख है, “जिंदगी न मिलेगी दुबारा” जैसी फिल्मों ने तो खुलकर यह संदेश दिया कि जिंदगी एक ही बार मिलती है, इसे जितना एन्जॉय कर सकते हो करो, इस फ़िल्म में तीन दोस्तों का एक ग्रुप दुनिया घूम रहा है, मस्ती कर रहा है, जबकि उन दोस्तों में से एक तो आर्थिक रूप से भी कमजोर है,और दोस्तों के पैसों पर ऐश कर रहा है। जिसे एक बिंदास युवक के रूप में फ़िल्म दिखती है। पहले बड़े – बुजुर्ग कहतें थे कि मनुष्य का जीवन बड़े सौभाग्य से मिलता है, इसका ऐसा सदुपयोग क़रो कि मर कर भी आप अमर हो जाओ।अपने समाज,अपने देश -परिवार के लिए कुछ ऐसा करो कि आने वाली पीढियां आपका नाम गर्व से लें। लेकिन धीरे -धीरे इस मानसिकता ने पैठ जमा ली है कि सिर्फ खुद के त्वरित सुख के लिए जिओ।परिवार की जिम्मेदारियां भले न उठाओ किन्तु दुनिया जरूर घूमो! स्थिति यह है कि इस पीढ़ी की गम और खुशी जैसे मनोभाव सहज रूप से महसूस ही नही होते।दुख है तो नशे में डूब जाएंगे,और किसी बात की खुशी है तब भी इन्हें नशा ही चाहिए!
वास्तविक सुख की अनुभूति में व्यक्ति सहज रूप से खुश रहेगा,अपना कार्य करते हुए,अपनी जिम्मेदारियां निभातें हु। भौतिक साधनों – सुविधाओं का उपयोग तो करेगा किन्तु उन पर निर्भर नहीं रहेगा। इस हद तक तो कतई नहीं कि उनके अभाव में अवसादग्रस्त हो जाये। सुख और दुख मानसिक अवस्थायें हैं, इन्हें सहज रूप से स्वीकारना सीखिए। बाहरी वस्तुओं, व्यक्तियों,परिस्थितियों का प्रभाव जब आपकी भीतरी संरचना पर पड़ना बन्द हो जाये वही सुख है।
डॉ.सुजाता मिश्र
सागर

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।