

” संभावनाओं के बीज “
कभी-कभी लगता है
जिन्दगी ठहर -सी गई है
ठहराव , जिन्दगी के लिए
अच्छी बात नहीं
चरैवेति चरैवेति ।
पर; हताश नहीं हुई
गौर किया कई कमल
खिल आये थे उस ठहराव में
मीठे सरोवर में
कई मछलियां तैर रही थी
इधर-उधर
नीर-क्षीर विवेक करने वाला
हंस भी मटरगश्ती कर रहा था ।
कभी -कभी ऐसा लगता
मन -मंदाकिनी
शनै-शनै रेत हो रही है
पानी का रेत होना
अच्छी बात नहीं है।
पर; निराश नहीं हुई
गौर किया कई लोक -संस्कृतियाँ
पनप आई है मरूस्थल में
कोई जख्मी नहीं होता
रेतीली हवा से
जिन्दगी जीना सीख लेते हैं लोग
कौन कहता मंजिल दूर है
सिर्फ दृष्टि -दोष ही है
संभावनाओं के बीज
तो हर जगह लहलहाते हैं
रेखा सिंह
नौलक्खा रिज ,खराडी
पुणे , महाराष्ट्र

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।

बहुत सुंदर रचना! सकारात्मक कविता। बधाई!
बहुत सुंदर कविता रेखआ जी। बहुत बहुत बधाई।