काव्यभाषा: संभावनाओं के बीज – रेखा सिंह पुणे

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” संभावनाओं के बीज “

कभी-कभी लगता है
जिन्दगी ठहर -सी गई है
ठहराव , जिन्दगी के लिए
अच्छी बात नहीं
चरैवेति चरैवेति ।

पर; हताश नहीं हुई
गौर किया कई कमल
खिल आये थे उस ठहराव में
मीठे सरोवर में
कई मछलियां तैर रही थी
इधर-उधर
नीर-क्षीर विवेक करने वाला
हंस भी मटरगश्ती कर रहा था ।

कभी -कभी ऐसा लगता
मन -मंदाकिनी
शनै-शनै रेत हो रही है
पानी का रेत होना
अच्छी बात नहीं है।
पर; निराश नहीं हुई
गौर किया कई लोक -संस्कृतियाँ
पनप आई है मरूस्थल में
कोई जख्मी नहीं होता
रेतीली हवा से
जिन्दगी जीना सीख लेते हैं लोग
कौन कहता मंजिल दूर है
सिर्फ दृष्टि -दोष ही है
संभावनाओं के बीज
तो हर जगह लहलहाते हैं

रेखा सिंह
नौलक्खा रिज ,खराडी
पुणे , महाराष्ट्र

2 COMMENTS

  1. बहुत सुंदर कविता रेखआ जी। बहुत बहुत बधाई।

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