काव्यभाषा : मानसिक विक्षिप्त -राजीव रंजन शुक्ल पटना

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मानसिक विक्षिप्त

पुराने मटमैले कुचले फटे कपड़े पहने
धूल धककर से सने
गली और रोड पर
रेल स्टेशन और
सिनेमा घर के आगे
जब कोई इन्हे कोई
पागल कह पत्थर मार के भागे
मन हो जाता बहुत छुब्ध
क्यों लोगों की बुद्धि हो गयी है लुप्त
मन मे आता है प्रश्न
क्यों दूसरों की इस स्थिति पर लोग करते जश्न
मानसिक विक्षिप्त है कौन
वह बेचारा जिसकी उड़ाई जा रही हँसी
बन रहा जिसका मज़ाक
या
जो
हँसी इनकी उड़ा रहे और कर रहे मज़ाक
शायद ये भूल रहे
जीवन के किसी न किसी मोड़ पर
अपने चेतन मन को खोकर
प्रत्येक इंसान होता है विक्षिप्त
मानसिक विक्षिप्त पर मज़ाक
एक अमानवीय कृत।

राजीव रंजन शुक्ल
पटना

9 COMMENTS

  1. समाज की कड़वी सचाई बायाँ करती बेहतरीन कविताl

    • बहुत बहुत धन्यवाद मैडम , आपकी टिप्पणी सदा प्रोत्साहित करती हैं।?

  2. इंसानियत की समझ से ही इस विक्षिप्त का निदान संभव…

  3. Mentally challenged are an integral part of our society. We should always be compassionate. Nice poem Shukla saab.

  4. Bahut ki samayupoyogi kavita hai. Shukla sahab aise hi aur dher saare sundar kavitayen likhte rahen. Ishwar ka ashirwad aap ke saath hain. Om namo shivay

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