

जीवन के उर्जास्रोत है…भगवान कृष्ण
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कृष्ण एक ऊर्जा हैं। कृष्ण को सोचना,कृष्ण को लिखना, कृष्ण को गाना, और कृष्ण को जीना….सब कुछ सुखद है।
मथुरा से निकलकर गोकुल की गलियों में दौड़ रहे कृष्ण की बजती हुई पैजनियाँ, कृष्णपद की थाट और कृष्ण की मधुर मुस्कान…आज भी उतनी ही तरोताजा है जितनी तरोताजा है राधा की फूटी हुई गगरी और उस में से झर रहे माखन से नहाया हुआ राधा का सौंदर्य..! और सखियों का खिलखिलाकर हँसना। माखन चोरी से लेकर..वस्त्रों की चोरी तक की कृष्ण की वह शरारतें ..!
राम अनुकरणीय है तो कृष्ण वर्णनीय..
राम के पदचिन्हों पर चलना आसान है मगर कृष्ण के पद्चिन्हों पर चलने से उलझ जाने का पूरा खतरा है। कृष्ण की लीलाएँ जो वर्णन मात्र से आनंद देती है। जब भी लीलाओं का वर्णन सुनते है..! उसी पल मन की अटरिया में एक वृंदावन आकर बैठ जाता है। जहाँ पर खेलने लगती है बरसाने की राधिका..
राधिका माने पूर्ण भक्ति, पूर्ण समर्पण और चंदन मिश्रित यमुना का सुगंधित जल..जितना पावन उतना ही शीतल ..कृष्ण प्रेम में विह्वल राधा की आँखें जो कभी कालिंदी के श्यामल प्रवाह से होड़ लगाती है ..तो कभी वृंदावन की कुंज गलियों से गोकुल तक दौड़ लगाती है। कभी कृष्ण की लीलाओं में उलझ जाती है तो कभी कृष्ण प्रेम की सांकल में बंधकर खुद ही कृष्ण की लीला बन जाती है।
राधा कृष्ण की साँस..है
बंसीवट हो या यमुना का तट ..! बंसी की मधुर पुकार सुनकर खुद ही बंसी बन जाती है राधा तो राधा का परम् स्नेह पाकर मोरपंख बन जाता है कृष्ण…. !
चाँदनी रात और मधुरमिलन की बेला में रचता रास, सृष्टि के सभी प्राणियों में बसे प्राण और प्रकृति से मधुरिम संवाद साधता है।
कृष्ण का फिर से मथुरा जाना और राधा का कृष्ण प्रेम में डूबकर खुद ही कृष्ण हो जाना जितना दिलकश है उतना ही दर्दसभर ..
प्रेम की पीर कौन जाने रे सखी..प्रेम की पीर अति दाहक..
जो मैं इतना जानती, प्रीत किए दुख होय..
शहर ढिंढोरा पीटती प्रीत न करियो कोई …
यह बोल चाहे राधा के हो या मीरा के हो..! दर्द की पराकाष्ठा है यह..
प्रेम पूर्णतया विरह का स्वरूप है। प्रेम की विरहाग्नि में तपकर प्रेम कुंदन जरूर हुआ है मगर वह दर्द की दाहकता भी उतनी ही भीषण रही होगी..! तभी तो हर युग में अवतरित हुई है राधा… नाम चाहे मीरा हो या हीर…! विरह के दर्द से गहराई उन हाथों की लकीरों में आज भी तो खोज रही है अपने कृष्ण को..!
कृष्ण एक अजेय योध्दा …
युद्ध चाहे कुरुक्षेत्र का हो या खुद के जीवन का। हर वक्त एक मधुर मुस्कान जो कृष्ण के चेहरे पर कायम रही है।
काल कोटरी में जन्म से लेकर सागर तट पर अपने ही परिवार को कलह में ध्वस्त होता देख क्या कृष्ण को दुख नहीं हुआ होगा..?
घने जंगल में अपनी अंतिम सांस को छोड़ते वक्त क्या उन्हें राधा का स्मरण नहीं हुआ होगा..?
जीवन का पहला और अंतिम प्रेम राधा से विलग होना क्या कृष्ण को मंजूर था?
फिर भी जीवन के हर कदम पर वह मुस्कुराते हुए मिले। अपना दर्द भीतर के कोने में दफन करके वह सदैव स्थिर मिले। जीवन के सभी निमित्त कर्मों को पूर्ण करते हुए कृष्ण के भीतर का एक कोना जो हमेशा ही रिक्त रहा..! और हमेशा ही गोकुल की और राधा की स्मृतियों के लिए आरक्षित रहा। वही रिक्तता कृष्ण के जीवन की, कृष्ण के अवतार कार्यो को अंजाम देने की ताकत बनी।
कुरुक्षेत्र के युद्ध की विभीषिका को जानते हुए और कुशल विष्टिकार होते हुए भी वह केवल साक्ष्य बनकर खड़े मिले। डरे हुए अर्जुन को गीता का उपदेश देने वाले कृष्ण, ज्ञान के दाता, ज्ञान के रक्षक और ज्ञान के संवाहक मिले तो कहीं द्रौपदी के परम् सखा बनकर उसके पल पल सहायक मिले।
रुक्मिणी सहित कई रानियों से ब्याह करके भी वो राधा को कहाँ भूल पाए थे ..?
कृष्ण को समझना बहुत कठिन इसी लिए है की कृष्ण का व्यक्तित्व बहुआयामी है उनका न कोई ओर है न छोर।
जहाँ से भी बांधों वह छूट ही जाएगा ..ये पक्का। ज्ञान से बाँधेंगे तो वह कर्म समझयेगा और कर्म से बाँधेंगे तो वह भक्ति समझयेगा.!
बहुत उलझाता है वो..! उसे समझना सरल कहाँ? उसे बांधना भी मुमकिन कहाँ? जो अपनी मैया से न बंध सका उसे हम कैसे बांध सकेंगें ? कृष्ण को बांधने का एक ही तरीका है और वह है प्रेम..!
क्यूँ न हम उसे प्रेम की डोर से ही बांध लें..? वह अवश्य बंध जाएगा क्योंकि वह यशोदा,नंदबाबा, गोपियां, गोपबालक और वही राधा को आजीवन तरसता रहा है।
कृष्ण एक मार्गदर्शक …
कृष्ण का जीवन भले ही विडंबनाओं से भरपूर रहा हो मगर उसका जीने का तरीका आज भी हम सब को मार्गदर्शित करता है। युद्ध के हाहाकारी माहौल में भी वह गीता सुना सकते है। थके हारे अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित कर सकते है। द्वारिकाधीश होने के बावजूद भी वह अर्जुन के रथ का सारथी बन सकते है और स्वयं नारायण होकर भी वह गोप बनकर गैया चरा सकते है। यही निश्चलता, यही सरलता और यही सहजता अगर हम सब के जीवन में आ जाए तो कृष्ण हमसे दूर कहाँ?
आप सभी के जीवन में गीत आये बंसी का मधुर संगीत आये और कृष्ण जैसा मनमीत आये यही शुभकामनाएं
भावना भट्ट
भावनगर, गुजरात

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।

मेरे आलेख को स्थान देने के लिए आपका हृदय से धन्यवाद ज्ञापित करती हूँ। आदरणीय देवेंद्र भाई।