
लघुकथा
बड़े हुए तो क्या हुआ
रहीम जी कह गए और हम पढ़ते भी रहे पर समझ आया शिव प्रसाद साहब को देखकर। शिव प्रसाद कभी छोटे पद पर थे। ऑफिस में जिन लोगों ने उन्नति की थी, उन्हें देखकर महसूस किया कि उन्नति करनी है तो आगे शिक्षा ग्रहण करनी पड़ेगी। पत्नी से विचार विमर्श किया तो पत्नी ने अपनी ओर से पूरा सहयोग देने का वायदा किया। पहले उन्होंने स्नातक बनने के लिए शॉर्टकट तलाशे। कई साहित्यिक संस्थाओं की परीक्षा दे डाली, पर उनकी मान्यता ही नहीं थी तो आखिरकार निजी अध्ययन करके बी ए करने के लिए फार्म भर दिया। उनके दो ही काम थे, एक नौकरी करना और दूसरे पढ़ाई करना। पति पत्नी दो जनों का परिवार था। पत्नी घर का बाजार का काम संभाल लेती थी। शिव प्रसाद ने बी ए कर लिया। बड़े खुश हुए। अपनी मेहनत और बुद्धि पर कुछ गुमान भी हुआ। उनकी पत्नी तो बहुत खुश थी पर उनके मन में कोई गुमान नहीं, सिर्फ खुशी थी।
स्नातक निरीक्षक की परीक्षा में बैठने का हकदार होता था। शिव प्रसाद परीक्षा में बैठे और निरीक्षक बन गए। वेतन भी बढ़ गया। बड़ा घर भी ले लिया। रहन सहन थोड़ा अच्छा हो गया। उनकी पत्नी को थोड़ी अच्छी साड़ी पहनने को मिल गई। उन्होंने कभी ज्यादा अपेक्षा भी नहीं की। बस एक ही तमन्ना थी कि उनके पति खूब तरक्की करें और खुश रहें। निरीक्षक बनने के बाद शिव प्रसाद को महसूस होने लगा कि अगर परास्नातक कर लिया जाए तो अधिकारी का पद मिल सकता है। अत: एम ए का फार्म भर दिया। इसके लिए पत्नी से सलाह करने का नहीं सोचा। बस बता भर दिया कि एम ए का फार्म भर दिया है। पत्नी ने खुशी जाहिर करते हुए कहा कि बहुत अच्छी बात है। अब एम ए की पढ़ाई शुरू। घर का काम पत्नी जी संभालती ही थी, लिहाजा घर में कोई अंतर आने का प्रश्न ही नहीं था। शिव प्रसाद की व्यस्तता बढ़ गई पर पत्नी की ओर ध्यान देने में कमी आती गई। लेकिन घर बढ़ गया था, एक बेटी और बेटे ने पदार्पण कर लिया था।
अब शिव प्रसाद अधिकारी बन गए। अधिकारी की जगह उन्हें ऑफीसर शब्द ज्यादा अच्छा लगता था। पत्नी की “सुनिए” शब्द उन्हें चुभने लगे। बोले साहब कहा करो। पत्नी साहब कहने तो लगी पर वह मिठास नहीं थी जो सुनिए में थी। शिव प्रसाद अब शिव प्रसाद साहब हो गए। लोग ऐसे ही संबोधन करते थे। सबसे उम्मीद करते थे कि उन्हें साहब या सर कहा करें। पता नहीं क्यों अब उन्हें पत्नी की कोई बात अच्छी नहीं लगती थी। पत्नी ने एक दो बार पूछा भी कि उसके प्रति उनका व्यवहार कठोर क्यों होता जा रहा है। उन्होंने यह कहते हुए झिडक दिया कि अपनी औकात देखी है। हर बुराई और खराब काम के लिए वे पत्नी को जिम्मेदार मानते। अगर कोई काम नहीं हुआ तो पत्नी के कारण, कोई काम खराब हो गया तो पत्नी के कारण। अब उन्हें सफलता नहीं मिल रही तो पत्नी के कारण। बच्चे के परीक्षा में कम अंक आए तो पत्नी के कारण और सभी अच्छे व सफल काम उनके कारण। बात बात पर क्लेश और इग्नोरेंस के कारण पत्नी बीमार रहने लगी। उनकी नज़र में उसके लिए भी पत्नी ही जिम्मेदार कि अब सब सुविधाएं हैं ज्यादा काम नहीं करना पड़ता, काम बाई करती है फिर भी अपना ख्याल नहीं रख पाती। शिव प्रसाद साहब घर के बाहर जितने बड़े आदमी थे तो घर में उतने ही छोटे। अब उनके कोई मित्र या साथी प्रगति करते या यश पाता तो अपनी हताशा के लिए पत्नी को ही जिम्मेदार समझते क्योंकि औरों की पत्नी बन ठन कर रहकर समाज में सम्मान पाती हैं, जिससे उनके पति को यश मिलता है। पत्नी कह बैठती कि आपको बाहर सब कुछ अच्छा लगता है, घर में सब कुछ खराब व बेकार।
शिव प्रसाद साहब अस्पताल के बिस्तर पर पड़ी पत्नी को सुनाए जा रहे हैं कि यह सब तुम्हारी लापरवाही का नतीजा है। अपने शरीर का ही ध्यान नहीं रख सकती तो और क्या कर सकती हो। आखिर जिंदगी में किया ही क्या है। बेटा बेटी अपने घर के हुए। अब मैं क्या क्या संभालूं। ऑफिस, घर, समाज, रिश्तेदार। उफ़ कह कर पलंग के पास स्टूल पर बैठ गए। मरी सी आवाज़ में पत्नी बोली ” सुनिए”, यह सुनकर वे अचानक चौंक पड़े मानो सदियों बाद यह अपनत्व भरी आवाज़ कहीं दूर से सुनी हो। पिघलती सी आवाज़ में बोले, हां हां कहो। पत्नी धीरे धीरे बोली, घर के बाहर ही सब कुछ अच्छा नहीं होता, घर में भी अच्छा होता है। आप अब घर के बड़े हैं तो छांव देना शुरू कीजिए। और पत्नी की गर्दन एक ओर लुढ़क गई। वे जोर से चीखे सी ..मा। पहली बार अंत में पत्नी का नाम पुकारा। बेटा बहू पोती पोता को कमरे में धीरे धीरे आते देख कर शिव प्रसाद फफक पड़े। सबने फुसफुसाया साहब, तो वे चीत्कार कर उठे, नहीं साहब नहीं, पापा। आंखों में आंसू भरे शिव प्रसाद ने बच्चों के सामने अपने हाथ फैलाकर उन्हें अपने अंक में भर लिया। अंदर ही अंदर उन्हें लग रहा है कि वे बड़े हो गए हैं।
-सत्येंद्र सिंह,पुणे

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।
बेहद संवेदनशील कथा के लिए श्री सत्येंद्र सिंह बधाई के पात्र हैं
धन्यवाद।
आदमी के बदलते व्यवहार और प्रायश्चित का वास्तविक चित्रण!👍👍
धन्यवाद मैडम।
बढ़िया.