
सबक-ज़िन्दगी के:
जो प्राप्य है,वही पर्याप्त है ….
कहते हैं “दूर के ढोल सुहावनें लगते हैं”। व्यक्ति को जीवन में जितना मिलता जाता है वह उससे ज्यादा महत्व उन वस्तुओं,उपलब्धियों या रिश्तों को देता है जो प्राप्त ही न हो। कभी – कभी यथार्थ से ज्यादा आकर्षक कल्पनाएं होती हैं। मनुष्य जब यथार्थ को स्वीकार नहीं पाता तो कल्पनाओं में ही कहीं अपनी दुनिया बना लेता है। कल्पना में भी भय या असफलता की अनुभूति होती है किन्तु वह भोगे हुए यथार्थ की तरह कड़वा- बेपर्दा सच नहीं होती।कल्पना हमारें मन की उपज होती है जिसमें हम समय – समय पर मनबुताबिक परिवर्तन करते रहते हैं। शायद इसीलिए कई लोगों को अपने यथार्थ से ज्यादा खूबसूरत बुनी हुई कल्पना लगती है।
दिक्कत वहाँ आती है जब आप यथार्थ को अनदेखा कर कल्पनाओं में ही जीवन जीने लगते है। निश्चित तौर पर कल्पना परिवर्तन की जननी भी है,किन्तु फिर भी कल्पना में सम्भावित सुख की लालसा में जीने से कहीं बेहतर है यथार्थ में प्राप्त सुखों के प्रति कृतज्ञता का भाव रखना। कौन जानें जिन काल्पनिक सुखों -उपलब्धियों के मोह में आप प्राप्त सुखों – उपलब्धियों को अनदेखा करते जा रहे हैं,उनका यथार्थ स्वरूप कैसा होगा! कभी यूँ भी होता है कि जीवन भर की तमाम जद्दोज़हद के बावजूद कल्पनाएं कल्पनाएं ही रह जाती हैं, अधूरी – अप्राप्य ! और तब आपकों पछतावा होता है यथार्थ को नकारने का, प्राप्य को अनदेखा करने का! अंत: जीवन में जो भी प्राप्त है उसके प्रति कृतज्ञता का भाव रखना सीखिए, उनमें खुश रहना सीखिए, कल्पनाओं को सत्य बनाने का प्रयास कीजिये, किन्तु प्राप्य को नकार कर नहीं।
डॉ.सुजाता मिश्र
सागर

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।