
सबक-ज़िन्दगी के:
भावुक होना अच्छा है, भावनाओं में बहना नहीं..
आमतौर पर भावुक होने को व्यक्ति की कमजोरी के रूप में देखा जाता है।कुछ लोग तो भावुकता को मूर्खता का ही दूसरा रूप मानतें हैं।अधिकांशतः ऐसी अवधारणाओं के चलतें भावुक इंसान भी स्वयं को कमजोर या असफल मानकर चलते हैं,और उन्हें यह यकीन हो जाता है कि उनकी भावुकता का सबने दुरुपयोग ही किया।सबने उन्हें मूर्ख और कमजोर ही समझा।
किन्तु मुझे लगता है कि भावुक होना इंसान होने की पहली पहचान है। दूसरों से मिला प्यार,सम्मान,अपनापन जिस इंसान के दिल तक न पहुंच सके, दूसरों का कष्ट – चुनौतियां जिस इंसान के मन में संवेदना न जगा सके, वह इंसान उस मृत – सूखे हुए वृक्ष के समान है जिसको आसमान से बरसता मूसलाधार जल भी हरा- भरा नहीं कर सकता। अत: कमी बरसते हुए जल की नहीं है, कमी तो कहीं उस सूखे -मुरझाए वृक्ष में ही है जिसे सूखकर गिर जाना मंजूर है किन्तु बरसता हुआ जल नहीं। अतः भावुक होना कतई गलत नहीं। हम सबको भावुक होना चाहिए, संवेदनशील होना चाहिए, और यदि कोई हमारे स्वभाव को हमारी कमजोरी समझे तो इसके लिए खुद को दोष नहीं देना चाहिए।
यहां हमें भावुक होने और भावुकता में डूब जाने के फर्क को भी समझना चाहिए। जब आप अपने प्रति किये गए दूसरों के दुर्व्यवहार के दर्द में डूब कर उसे ही अपना नसीब मानने लगे तो यह भावुकता में डूब जाने के समान है। ऐसे कटु अनुभवों पर आप जितना सोचेंगे आपकों उतना ही मानसिक कष्ट होगा। अतः संवेदनशील रहिये, भावुक रहिये,लेकिन उसी सीमा तक जहां यह आपकी ताकत हो, कमजोरी नहीं।नदी का जो जल हमारी प्यास बुझाता है हमारी जरा सी लापरवाही से वही जल हमें डुबो भी सकता है। इस फर्क को समझिए, और भावनाओं में जीना सीखिये, भावनाओं में बह जाना नही।
डॉ.सुजाता मिश्र
सागर

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।
“Bhavuk hona achha hai, bhavna mai behna nahi”
Bahut kamaal ki baat apne kahi ma’am 🙏
धन्यवाद वरुण जी।
बहुत ही अच्छा लेख है,सबको प्रेरित करने योग्य बहुत बधाई डाक्टर सुजाता जी
धन्यवाद दीदी।