काव्यभाषा: ग़ज़ल – शीला गहलावत सीरत, चण्ड़ीगढ

ग़ज़ल

माना की रस्ते में पत्थर बहुत हैं
लोग हमसे भी बद्दतर बहुत हैं

कांच की है ये मेरे दिल की बस्ती
आईने के टूटने का डर बहुत हैं

बदलती रही है अब दुनियां मग़र
बस्ती में अब भी पुराने घर बहुत हैं

निगाहों से बचके प्यास बुझानी है
पर दरिया के पास लश्कर बहुत हैं

बाहर से चमकता है “सीरत” का दिल
दिल की सल्तनत में खंडर बहुत हैं ।

शीला गहलावत सीरत @
चण्ड़ीगढ

1 COMMENT

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here