काव्य भाषा : रेशम की डोर -सुनील कुमार कौरव गाडरवारा

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रेशम की डोर

हँसी ठिठोली करूँ पर उसे रुलाता नहीं हूँ मैं,
लगाये माथे पर है टीका तो हटाता नहीं हूँ मैं,
आशीष मुझ पर अनमोल है बहना का प्यार,
रेशम की डोर का कर्ज चुका पाता नहीं हूँ मैं!!

अभी घर पर है तो पल हरपल है रौनक बड़ी,
मम्मी पापा को पता नहीं चला कब हो गई बड़ी,
पढ़ाई,कढ़ाई,डांस सीख खाना भी बनकर तैयार,
सबको खाने पर बुलाने जब वो देखती थी घड़ी,

बात बात पर लड़ाई और करनी उसकी खिचाई,
भाई हरकत करे तो रोज होती है उसकी पिटाई,
मम्मी पापा तुमने तो उसको मुँह लगा लिया है,
बेटे को डांटकर सबने ही मोहब्बत उस पे लुटाई,

चलती थी वो तो माँ की बनकर हरदम परछाई,
जब कभी पड़ी जरूरत हरदम आवाज लगाई,
उसने तो बाबूजी जी और मां का नाम किया,
अच्छे नंबर लाने फिर करती थी जमकर पढ़ाई,

आयी बेला जब वह अपने घर से ही जाने लगी,
रो रो कर माँ बाप की भी जो आँखे भराने लगी,
भाई का भी बुरा हाल तुझ बिन कैसे मैं रह लूंगा,
सूना आंगन,घर हर जगह उसकी कमी सताने लगी,

सुनील कुमार कौरव
गाडरवारा

#स्वरचित #नवीन #मौलिक

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