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मन के हारे हार है,मन के जीते जीत
हमारे घर के साथ ही डिस्ट्रिक्ट पार्क है। उसके साथ बहुत सारी झुग्गियाँ बनी हुई हैं। पता नहीं कौन पार्क में नल खोल कर हौज़पाइप लगा देता है।सर्दियों में दस बजे से शाम के पाँच बजे तक वो हौज़पाईप चलता रहता है तथा गर्मियों में सुबह सात बजे से खुल जाता है। उस हौज़पाइप से पौधों में पानी नहीं दिया जाता है बल्कि झुग्गी वाले नहाते हैं और साबुन की टिक्की से मल- मलकर कपड़े धोते हैं। जिसका नतीजा यह होता है कि जो काम दो बाल्टी पानी में किया जा सकता है, उसके लिए फ्री का चालिस बाल्टी पानी खर्च होता है। उन्हें कई बार समझाया कि तुम लोग बाल्टी में पानी भर लिया करो और अपने घर जाकर वहीं नहाया करो और कपड़े धोया करो। तुम्हारे लिए नल लगवा दिया है। वहाँ से पानी भर लिया करो। लेकिन किसी की समझ में कुछ नहीं आया। पार्क में जो लोग घूमने आते हैं, उनसे भी कहा कि इन्हें टोका करो। जब इनके लिए नल लगवा दिया है तो ये लोग वहाँ से पानी भरकर घर जाकर नहाएँ धोएँ क्योंकि हौज़ पाइप चलने का मतलब है, एक मिनट में कम से कम दस बाल्टी पानी बहना। देश में वैसे ही पानी की कमी है। धीरे धीरे पानी का स्तर कम होता जा रहा है। हमारे घरों में मोटर लगाने के बाद भी सुबह केवल एक घंटे पानी आता है।शाम को तो आता ही नहीं है।यहाँ पार्क में रोज एक हजार बाल्टी पानी कुछ लोगों के नहाने व कपड़े धोने में बर्बाद हो जाता है।पार्क का यह हाल हो गया है कि यह पार्क कम,जंगल ज्यादा लगता है।
सबका यही कहना था कि हम क्या कर सकते हैं? इनको मना करने से भी कुछ नहीं होने वाला। परिवार कल्याण समिति के अध्यक्ष को कहा तो उनका भी यही कहना था कि मैं कई बार मना कर चुका हूँ लेकिन यह लोग नहीं मानते।
“इसका मतलब यह हुआ कि धीरे-धीरे पार्क जंगल में तब्दील हो जाएगा और हम लोग इतने बेबस हैं कि कुछ नहीं कर पाएँगे” मैंने कहा।
वे व्यंग से बोले:– ‘आप ही कुछ करके देख लो’।
‘ठीक है, अब मैं ही कुछ करके दिखाऊँगी’।
यह उन दिनों की बात है जब मैं नौकरी करती थी। मैं रोजाना चार बजे ऑफिस से आती थी और उसी पार्क से होते हुए आती थी। मैंने रोजाना औरतों को समझाना शुरू किया कि यदि अब यहाँ नहाती हुई नजर आ गईं तो अच्छा नहीं होगा।हर रोज नए चेहरे नजर आते थे और वह कहते थे कि आंटी जी हम तो आज ही नहा रहे हैं। अब उन लोगों ने पार्क में रोजाना जगह बदल- बदल कर नहाना और कपड़े धोना शुरू कर दिया। साबुन के पानी से लगातार एक ही जगह हौज़पाइप चलने से सारी क्यारियाँ पानी से लबालब भर जाती थीं।उनको पल्लवित, पुष्पित होने की नौबत ही नहीं आने पाती थी। एक दिन जब मैंने बहुत डाँटा और कहा:-
‘तुम लोगों को बीस बार कहा कि बेशक तुम लोग बीस बाल्टी पानी भरो, लेकिन घर जाकर नहाओ और घर में ही कपड़े धोओ। तुम लोग हर रोज आठ दस लोग केवल नहाने व कपड़े धोने में एक हजार बाल्टी पानी खर्च करते हो। जो पाइप पेड़- पौधों को पानी देने के लिए लिए लगाया जाता है, उससे पार्क में पानी नहीं दिया जाता, बल्कि एक ही जगह तुम लोग वहाँ साबुन मिले पानी का तालाब बना देते हो। सारे पार्क का सत्यानाश करके रख दिया है। क्या तुम लोग नहीं चाहते कि तुम्हारी झुग्गियाँ यहाँ रहें ?’
उस दिन जो औरतें नहा रही थीं, उनमें से एक बड़ी तेज तर्रार थी। बोली– ‘नहीं रहेंगी तो क्या हुआ? सरकार कहीं और जगह दे देगी।’
‘सरकार क्यों जगह दे देगी’?
‘क्योंकि हम सरकार को वोट देते हैं ‘
‘सरकार को तो हम भी वोट देते हैं’।
‘कोई कह रहा था कि सरकार को पढ़े-लिखे लोग वोट नहीं देते।झुग्गी बस्ती वाले ही सरकार को वोट देते हैं। तभी तो सरकार हमें वोट के बदले में मुफ्त कम्बल बाँटती है और बिजली और पानी भी मुफ्त में देती है।’
मैंने कहा:— ‘अच्छा ऐसी बात है। तो तुम्हें जो करना है वह करो। अब मैं रोज तुम लोगों की नहाते हुए और हौज़पाइप से कपड़े धोते हुए फोटो लूँगी।तुम लोग अब अखबार में और टी.वी पर ही देखना कि तुम लोग नहाने और कपड़े धोने में कितना पानी खर्च करते हो?
मैं फौरन घर आई। पर्स रखा और हैण्डीकैम लेकर पार्क में चली गई। उन लोगों की फोटो खींचने के लिए फोकस किया ही था कि सारी औरतें धोने वाले कपड़े भी वहीं छोड़कर गधे के सिर से सींग की तरह गायब हो गईं।थोड़ी देर बाद एक औरत मेंढक की तरह फुदक-फुदक कर छिप- छिप कर, पूरा चेहरा घूँँघट में छिपाकर आई और सारे कपड़े उठाकर एकदम वहाँ से उड़न छू हो गई।
अगले दिन रविवार था।मेरी छुट्टी थी। वैसे तो मेरी तबीयत रोज ही खराब रहती है और डाक्टर की सख्त हिदायत है कि मैं बिल्कुल स्ट्रैस न लूँ, लेकिन इन कामों के लिए न जाने कहाँ से जुनून पैदा हो जाता है।वैसे भी मेरा मानना है कि:–
*मन के हारे हार है*
*मन के जीते जीत*
अगर समाज के लिए कुछ करना है तो इतनी हिम्मत तो जुटानी ही पड़ेगी और मुझे हिम्मत जुटानी नहीं पड़ती। मुझमें हिम्मत अपने आप ही आ जाती है।
रविवार था। मेरी छुट्टी थी। मैं उस दिन पार्क में दोपहर ढ़ाई बजे चली गई। उस दिन पहले दिन वाली नहीं, अपितु अन्य दूसरी औरतें कपड़े धो रही थीं।एक बच्चों को नहला रही थी। दो आदमी नहा रहे थे। हौज़पाइप से पूरे प्रेशर से पानी आ रहा था।जहाँ वे नहा रहे थे,वहाँ तालाब सा बन गया था। पहले मैंने चारों तरफ आराम से घूम- घूमकर देखा। उन्हीं के सामने अपने मोबाइल से किसी को फोन किया और बोलना शुरू किया कि:— *रोजाना अपना कैमरा लेकर पार्क में ग्यारह बजे से शाम के चार बजे तक घूमा करो, लेकिन ध्यान रहे कि किसी को मालूम न हो कि तुम कैमरा लेकर घूम रहे हो, वरना सब गायब हो जाएँगे। जहाँ भी पार्क में हौज़पाइप से लोग नहा रहे हों या साबुन की टिक्की रगड़कर कपड़े धो रहे हों, उसका (जितनी देर तक वे लोग नहाएँ या कपड़े धोएँ, उतनी देर का) पूरा फोकस लेना और चुपचाप लेना। अखबार और टी.वी पर दिखाना कि देश में पानी की कोई कमी नहीं है। हमारे देश में जितने पानी में चालीस कपड़े धुल जाते हैं, वहाँ कुछ लोग चालिस बाल्टी पानी केवल एक कपड़ा धोने में बर्बाद करते हैं।*
यह बात मैंने इस तरह कही जिससे वे लोग सुन सकें ,लेकिन उन्हें ये भी न लगे कि मैं ये बातें उन्हें सुनाने के लिए कह रही हूँ।
मेरा मुँह उनकी तरफ नहीं था। मेरी पीठ उनकी तरफ थी और मैं घूमते-घूमते जोर-जोर से मोबाइल पर यह बातें कर रही थी। हालाँकि मैंने फोन किसी को नहीं किया था। वह केवल उनको सुनाने के लिए था।
अगले दिन सुबह मैंने माली से पूछा कि हौज़पाइप कितने बजे से कितने बजे तक चलता है?
‘सुबह नौ बजे से शाम पाँच बजे तक’ वह बोला।
‘दो घंटे में पार्क में पानी दिया जा सकता है तो पूरे दिन पाइप क्यों चलता है? पूरा पार्क जंगल बन गया है।खैर
*आपको जो करना है, आप करो और जो हमें करना है हम करेंगें’* कहकर मैं ऑफिस चली गई।
तब से आज तक रोज देखती हूँ कि सुबह पार्क में झाड़ू लग रही होती है।सुबह शाम झुग्गियों की औरतें और बच्चे डिब्बों में पानी भरकर ले जा रहे होते हैं। अब वहाँ कोई नहाता या कपड़े धोता हुआ नजर नहीं आता। यह देखकर इतनी खुशी हुई कि बता नहीं सकती और किसी की लिखी हुई यह पंक्तियाँ याद आ गईं :—
*’कौन कहता एक मनुज कुछ कर नहीं सकता’*?
मेरा मानना यह है कि असफलता से भी यह सीखो कि हमारा सफल होने का इरादा मजबूत नहीं था और पुनः अपने संकल्प को पूर्ण करने के लिए नए उत्साह से जुट जाओ। जब इच्छा शक्ति हो तो असंभव को संभव करने के रास्ते भी मिल ही जाते हैं।
मैं एक बात और भी सोच रही थी। यदि सरकार इन लोगों को मुफ्त में जगह देती है, तो इन लोगों के लिए एक काम और भी तो कर सकती है।जैसे सोसाइटी सात मंजिला बन सकती है, तो इन झुग्गी वालों के लिए भी सरकार कम लागत वाले सात मंजिला मकान बनाकर क्यों नहीं दे देती… जिसके बीचोंबीच एक पार्क हो… जैसा सोसाइटी के फ्लैट्स में होता है। जितनी जमीन सरकार इन लोगों को देती है, और जितने लोग उस पर झुग्गियाँ बनाकर रहते हैं, उससे भी कम जगह में उन लोगों को कम लागत वाले बने बनाए घर देकर कम किराया वसूले।ऐसा करने से उस जमीन पर उससे तीन सौ गुणा ज्यादा लोग रह सकते हैं और झुग्गियाँ देखकर जो विपन्नता, निर्धनता का एहसास होता है, वह भी नहीं होगा और हम गर्व से कह सकेंगे कि हमारे देश में झुग्गी बस्तियाँ नहीं हैं। हो सकता है मेरा यह सपना मात्र स्वप्न बनकर ही रह जाए। “किंतु स्वप्न देखने का हक तो है ना मुझे”।
–राधा गोयल,
विकासपुरी,नई दिल्ली

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।
