
कालः कलयताम् अहम्
(क्षण,घटिका आदि से)जीवन की गणना करने वाला काल मैं हूँ।-गीता१०/३०
विचारणीय यह है कि-
१-काल हमारी गणना करता है।
२-या हम भी काल की गणना करते हैं।
कहा यही जाता है, किताबों में भी यही लिखा है कि काल हमारी कलना(गणना)कर रहा है।और उसकी गणना अचूक है।उसकी गणना के बाद”राई घटै न तिल बड़ै”।
परन्तु हम भी काल की गणना करने का प्रयास करते हैं।
काल है अनादि, अनन्त और अखण्ड।
क्या ऐसी कल्पना संभव है कि कोई समय ऐसा था जब”समय”नहीं था।या कोई समय ऐसा रहा है या हो सकता है जब “समय”न हो।तो जो अनादि और अनन्त है वह अखण्ड होगा ही ।
अनादि, अनन्त और अखण्ड तो ब्रह्म ही हो सकता है, इसीलिए गीता में भगवान् स्वयं को काल कहते हैं:-
“कालो$स्मि—“गीता ११/३२
लेकिन हम ब्रह्म को भी सादि ,सान्त और ससीम बना लेते हैं-अवतार-वाद की मान्यता में।
ठीक उसी तरह अखण्ड काल का युग,वर्ष, मास,दिन,घटी,पल आदि की कल्पना करके-भूत,भविष्य और वर्तमान में विभाजन करके हम काल की गणना का प्रयत्न ही तो करते हैं।
लेकिन क्या इस प्रयत्न में हमें सफलता मिलती है?
शब्दकोश में भूत काल शब्द रहे, पर हमने कभी भूतकाल का साक्षात्कार किया है?वह भूत जिस दिन हमारे अनुभव-काल में था, उस दिन उसकी संज्ञा वर्तमान थी।
और हांँ, भविष्य भी जिस दिन हमारे सामने आएगा-वर्तमान ही होगा।तो हम कहते रहें-“भूत-भविष्य”।जो हमारे अनुभव का विषय है वह है-वर्तमान।हर काल में जो हमारे सामने होगा वह एक मात्र वर्तमान ही होगा।
अपने उपदेश संग्रह”सद्दर्शनम्”में रमण महर्षि इस तथ्य को बतलाते हुए कहते हैं:-
भूतं भविष्यच्च भवत्स्वकाले
तद् वर्तमानस्य विहाय तत्त्वम्।
हास्या न किं स्याद् गत-भावि-चर्चा
विनैकसंस्थां गणनेव लोके।।१७।।
मैं पहले भी निवेदन कर चुका हूँ कि “सद् दर्शनम्”का मैंने हिन्दी पद्यानुवाद करने का बाल-प्रयास किया है।इस छंद के मेरे भावानुवाद का अवलोकन करें:-
हैं भूत और भविष्य*केवल वर्तमान* स्वकाल में।
सद् वर्तमान न तज सकेंगे हम किसी भी हाल में।।
गत-भावि चर्चा, वर्तमान विना,हँसी की है लड़ी।
बिनु एक के संख्या कभी संसार में आगे बड़ी?१७।।
वर्तमान काल मात्र को सत्(अस्तित्व)बतला कर महर्षि रमण एक ओर आध्यात्मिक सत्य का निरूपण कर रहे हैं तो वहीं यह व्यावहारिक शिक्षा भी दे रहे हैं कि संसार का हो या परमार्थ का-“कार्य कोई भी हो “हमें उसे वर्तमान में ही कर लेना चाहिए, भविष्य के लिए टालना नहीं चाहिए।
नीति शास्त्र में भी कहा गया है:-
श्व:कार्यमद्य कुर्वीत पूर्वाह्ने चापराह्णिकम् |
न हि प्रतीक्षते कालःकृतमस्य न वा कृतम्।।
(काल करै सो आज कर आज करै सो अब्ब।
काल प्रतीक्षा कब करे ,किया कि न किया सब्ब।)
जो वरत रहा है वह है “वर्तमान”।
यही हमारा जीवन है।इसी वर्तमान में हमें पुरुषार्थ-चतुष्टय प्राप्त करना है।
तो आइए, भूत के शोक और भविष्य के सपनों या आशंकाओं से उठ कर वर्तमान में जियें।
जगदीश सुहाने
दतिया

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।
आलेख को “युवा प्रवर्तक”की सम्मानित वेबसाइट में स्थान देने के लिए हार्दिक आभार।
साइट के लिए अनन्त शुभकामनाएं।
बहुत अच्छी व्यख्या काल ईश्वर का ही रूप है । काल के बिना सृष्टि की कल्पना कठिन है ।पर काल का अस्तित्व तभी है जब काल का कोई निर्देशक होगा जैसे सूर्य हमारे अनुभव में है । बदली में बिना सूर्य के काल गणना घडी से होते हुऐ भी हमने देखा है। सूर्य या घडी सब अंतरिक्ष पर आधारित है । अत: ईश्वर का काल का रूप तभी आऐगा जब वह अन्तरिक्ष का भी स्वरूप भी लेले ।