संस्मरण : आभाएं कभी बुझा नहीं करती -विपिन पवार,मुंबई

    संस्मरण -विपिन पवार,
    उप महाप्रबंधक, मध्य रेल, मुंबई

स्मृति-शेष : अरुणाभा ठाकुर
आभाएं कभी बुझा नहीं करती

संत विनोबा भावे जी ने लिखा है कि स्‍मृति बहुत ही सूक्ष्‍म मानसिक शक्ति है। मनुष्‍य द्वारा जो कर्म किए जाते हैं वे तो पूर्णता को प्राप्‍त होने पर समाप्‍त हो जाते हैं, लेकिन उन कर्मों के दौरान घटी अच्‍छी-बुरी घटना का सुखमय या दुखमय संसार सदा के लिए चित्त पर अंकित हो जाता है और परिस्थितियों के आने पर वह उभरकर मानव-पटल पर हिलोरे लेने लगता है। शुभ-अशुभ दोनों प्रकार के कर्म होने के कारण संस्‍कार भी दोनों प्रकार के होते हैं। उन संस्‍कारों का रिकार्ड मन में सुरक्षित होता है, इन्‍हीं सुरक्षित संस्‍कारों के संग्रह को स्मृति कहते हैं। उनमें से कुछ विशेष स्मृतियां ही दीर्घकालीन होती हैं, क्‍योंकि सबकी सब स्मृतियों का बोझ चित्‍त नहीं उठाता। इसलिए चित्‍त उनमें से सामान्‍य-सी या अनावश्‍यक स्‍मृतियों को फेंक देता है और जो कुछ रहता है उसको स्‍मृति-शेष कहेंगे । अच्‍छी स्‍मृति का अच्‍छा और बुरी स्‍मृति का बुरा असर जो चित्‍त में शेष रह गया है, वही चित्‍त स्‍मृति-शेष कहा जाता है। अच्‍छी स्‍मृति का अच्‍छा और बुरी स्‍मृति का बुरा असर चित्‍त पर होता है। अच्‍छे और बुरे चित्‍त स्‍मृति-शेष को अलग-अलग करके संचित करने का काम विवेक करता है। अरुणाभा की स्‍मृति पहले प्रकार की स्‍मृति में आती है। काफी लंबी अवधि तक अरुणाभा ठाकुर, जिन्‍हें हम आभा कहते थे, के निकट संपर्क में रहने के कारण जब रेल सुरभि का अंक प्रेस में जा रहा था तो मैं अपनी लेखनी को रोक नहीं पाया ।

अरुणाभा मूलत: बिहार की रहने वाली थी। पिताजी रेल सेवा में होने के कारण उत्‍तर रेलवे में अनेक स्‍थानों पर बचपन बीता। उनके पिताजी डीजल रेल इंजन कारखाना, वाराणसी में सहायक कार्मिक अधिकारी के पद से सेवानिवृत्‍त हुए। बनारस में रहते प्रात: गंगा में तैरकर उन्‍होने अपने शरीर को बहुत मजबूत बना लिया था। मै जब 1990 में उनसे पहली बार मिला तो एक मजबूत कदकाठी की राजभाषा सहायक ग्रेड-।। से मिलकर अत्‍यंत प्रसन्‍नता का अनुभव हुआ, लेकिन अब लगता है कि जीवन कितना क्षणभंगुर है और हमारा शरीर मिट्टी से बना है एवं मिट्टी में मिल जाएगा। भले ही कितना भी मजबूत क्‍यों न हो। जीवन का यह शाश्‍वत सत्‍य हमें दिखाता है कि किस तरह चलता-फिरता शक्तिशाली शरीर पंचतत्‍व में विलीन हो जाता है ।

अरुणाभा का विवाह जब नौसेना में कार्यरत श्री सदन ठाकुर से हुआ तो वे अपने पति के पास मुंबई आ गई और दक्षिण मुंबई के नेवी नगर में रहने लगी। अरुणाभा कठोर परिश्रमी, निष्‍ठावान, ईमानदार और समय की पाबंद कर्मचारी थी। मध्‍य रेल मुख्‍यालय के परिचालन विभाग में अपने सेवाकाल के दौरान अधिकारियों एवं कर्मचारियों के बीच उन्‍होंने अपनी बहुत अच्‍छी छवि बनाई और मध्‍य रेल पर परिचालन विभाग की नियम पुस्तिकाओं, संहिताओं, समय-सारणियों को हिंदी में अनुदित करने में अपना महत्‍वपूर्ण योगदान दिया। उनका जीवन संघर्षों से भरा था। संघर्षों की आंच में तपकर वे खरा सोना बन गई थी। जब उनके पति स्‍वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर खाड़ी देशों में नौकरी हेतु चले गए तो उन्‍होंने अपनी दोनों बेटियों का दाखिला भारतीय रेल के प्रतिष्ठित ऑक ग्रोव पब्लिक स्‍कूल, झारीपानी, मसूरी में करवा दिया, इसका उद्देश्‍य बच्‍चों को बेहतर शिक्षा दिलाने से बढ़कर सरकारी कार्य निष्‍ठा से करना था। उन्‍होंने मुझसे कहा था कि मुंबई में दो बच्‍चों की जिम्‍मेदारी अकेले निभाने पर मैं सरकारी कामकाज उस ढंग से नहीं कर पाऊंगी जिस ढंग से करती आ रही हूं । वर्ष में कई बार बच्‍चों को मुंबई से मसूरी लाने ले जाने के कष्‍टप्रद कार्य को वे अकेले ही बड़े मजे से करती रही और इन यात्राओं के अनेक संस्‍मरण उन्‍होंने मुझसे शेयर किए थे। मुंबई के उपनगर कल्‍याण में उन्होंने फ्लैट खरीदा उस समय का मनोरंजन वाकया याद आता है। हमारे मुख्‍यालय के वरिष्‍ठ राजभाषा अधिकारी-। स्‍वर्गीय श्री कालिका प्रसाद मिश्र, गृह प्रवेश के अवसर पर कल्‍याण पहुंचे, तो अरुणाभा के दरवाजे पर लिखा था ‘’आभा सदन’’। मिश्रा जी कहने लगे, देखो ! आभा का वर्चस्‍व कार्यालय में तो है ही घर पर भी है। देखो! दरवाजे पर केवल अरुणाभा का नाम लिखा है पति का तो नाम ही नहीं लिखा है। बाद में अरुणाभा में उन्‍हें समझाया कि मेरे पति का नाम सदन है। इसलिए घर का नाम रखा है आभासदन ।

वर्ष 2003 में वे राजभाषा सहायक ग्रेड-। से पदोन्‍नत होकर राजभाषा अधीक्षक के रूप में भारतीय रेल सिविल इंजीनियरी संस्‍थान (इरिसेन) पुणे चली गई। वे मिलनसार, दूसरों का दुख समझने वाली, गरीबों के आंसू पोंछने वाली, ममतामयी, विशाल हृदय की स्‍वामिनी थी। उन्‍होंने हमारे विभाग के एक लड़के एवं एक अन्‍य लड़की को गोद लिया और आजीवन मॉं का कर्त्‍तव्‍य निभाती रही। उन्‍हें मुखाग्नि उस दत्‍तक लड़की के बेटों ने ही दी। उनकी लोकप्रियता का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि इरिसेन के सभी कर्मचारी उन्‍हें ‘’हिंदी माँ’’ कहते थे। राजभाषा विभाग के अपने दायित्‍वों के अलावा उन्‍होंने बहुत से अन्‍य काम भी किए। किसी भी काम के लिए उन्‍होंने कभी मना नहीं किया। चाहे वह किसी के विदाई समारोह की तैयारी हो, राष्‍ट्रीय त्‍यौहारों के आयोजन में सहायता करना हो, पत्रिका का प्रकाशन करना हो या किसी का जन्‍म दिन मनाना हो। मेरा जन्‍म दिन वह बहुत उत्‍साह से मनाया करती थी ।

संवेदनशील, मृदुभाषी एवं मिलनसार होने के साथ वे बेहद अनुशासन प्रिय, अपने सिद्धांतों एवं आदर्शों पर अडिग रहने वाली एवं अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाली महिला थी। पुणे में रेल परिसर में निवास करते समय उन्‍हें जिन समस्‍याओं का सामना करना पड़ा उसके समाधान के लिए वे लगातार प्रयास करती रही। पुणे मंडल के एक अधिकारी अरुणाभा को ‘झांसी की रानी’ कहा करते थे ।

वे जीवन भर स्‍वास्‍थ्‍य के प्रति सचेत रही, न केवल अपने बल्कि अपने साथी कर्मचारियों के भी। विभाग के तंबाकू, पान-मसाला एवं गुटका खाने वाले कर्मचारी उनके सामने अपने ‘’चैतन्‍य चूर्ण’’ का सेवन नहीं करते थे। वे पुरुष कर्मचारियों की जेब से तंबाकू की पुडि़या निकाल लिया करती थी। कहती थी मत खाओ ! कैंसर हो जाएगा ।

अरुणाभा अत्‍यंत धार्मिक किस्‍म की महिला थी। भगवान कृष्‍ण के बालरूप की अनन्‍य आराधिका एवं परम साधिका। ब्राह्म मुहुर्त में उठकर अपने ‘’लड्डू गोपाल’’ की सेवा- टहल कर, योग एवं प्राणायाम किया करती थी। आयुर्वेद पर उनका जबरदस्‍त विश्‍वास था और वे उसका प्रयोग भी करती थी। उनके अति वृद्ध कृषकाय माता-पिता उनके साथ ही रहते थे, क्‍योकि वे जिम्‍मेदारियों से पलायन करने वाली नहीं अपितु जिम्‍मेदारियों को आमंत्रित करने वाली महिला थी। पिता की मृत्‍यु के पश्‍चात वे टूट-सी गई। कहती थी लगता है कि जैसे मेरे सिर से आसमान हट गया। जब मैं ऊपर देखती हूं तो मुझे सिर्फ शून्‍य दिखाई देता है।

इधर हाल के वर्षों में उनको पता नहीं कैसे मधुमेह ने घेर लिया। शायद यह इस विशाल वृक्ष में लगा पहला दीमक था। मुझे लगता है बाद के दिनों में वे अपने स्‍वास्‍थ्‍य के प्रति कुछ लापरवाह हो गई थी, फिर एक दिन पता चला कि उन्‍हें कैंसर हो गया है। जब मैं उनसे मिलने पहुंचा तो मुझे उसी प्रसन्‍नचित्‍त आभा के दर्शन हुए जैसा कि मैं उन्‍हें देखता आया था। कहने लगी कि मैं कैंसर को हराकर रहूंगी। मैंने उन्‍हें विश्‍वास दिलाया कि इस युद्ध में हम सब आपके साथ हैं।

दो वर्ष लंबा संघर्ष, वटवृक्ष का सूखते-सूखते तुलसी के पौधे में परिणित हो जाना——– सचमुच मेरे लिए यह कष्‍टप्रद रहा। आखिरी बार जब मैं उनसे मिला तो वह बहुत मुश्किल से बोल पा रही थी। उन्‍होंने एक हफ्ते से कुछ भी नहीं खाया था और न ही कुछ पिया था, उनके अंतिम शब्‍द आज भी याद है – अगली बार———– नहीं! शायद वे कहना चाह रही थी अगली बार जब आप पुणे आएंगे तो मैं आपको नहीं मिलूंगी। यह वह घड़ी थी, जब वह शरीर से नहीं, लेकिन मन से भी परास्‍त हो चुकी थी ।

संसार में ऐसे लोग विरले ही होते हैं, जो अच्‍छे-बुरे सब लोगों से अपना संबंध बनाए रखते हैं। अरुणाभा भी उनमें से एक थी। उनके उस संबंध की ऊष्‍मा एवं आभा आज भी हमारे दिलों में प्रकाशित है। इसलिए मैं कहूंगा कि—— आभाएं कभी बुझा नहीं करती ।

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2 COMMENTS

  1. बहुत ही मर्मस्पर्शी संस्मरण है. लेखक श्री विपिन पंवार को साधुवाद.

  2. श्री विपिन कुमार जी का “आभाएं कभी बुझा नहीं करतीं” स्वानुभूत लेखन है जिसका एक अक शब्द उन्होंने जीया है, लिखा नहीं अरुणाभा जिन्हें मैं भी आभा ही कहता था वैसी ही थी जैसा विपिन जी ने लिखा है। उनकी कलम से निसृत एक एक शब्द आभा के जीवन के एक एक पल को अभिव्यक्त करता है। वे सच कह रहे हैं, आभा कभी नर नहीं सकती।

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