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सौंदर्य-बोध.
…….
मैंने
मुझको
बहुत परखा, बहुत निहारा
पश्चात्
मैंने
मुझको
बहुत तोड़ा,बहुत सुधारा।
नख से शिख तक
अलंकरण के उपादान
तब भी थी,
‘श्रृंगार-विहीन’
किन्तु
अब
सौंदर्य सहेजना
आ गया मुझे।
दो रोटी
निरुपाय को खिलाकर
उस
उद्वितन ,’भूखे’ पेट के
गीले नेत्रों में देखा जब
तृप्ति का चरम
तो
मोरछल की रुचिता सा,
श्रृंगारित हो गया
मेरा ‘मन’।
वो
नन्हा पादप (पौधा)
आज लद गया फलों से,
अनायास ही कभी
रोप दिया था
मैंने
जिसे,
उसकी
विस्तृत पयोद सी
विराटता से
श्रृंगारित हो गया मेरा ‘तन।
औऱ
वो,
‘ढीठ’
अनाथ,अशरण
जिसे
अपने हठ पर
अंकपाली सी मैं
अंगुली पकड़कर
शाला छोड़ आया करती थी
आज
मुझे
‘माँ’ कहता है।
‘माँ’
उच्चारण की
विमल,अम्लान
अलकनंदा सी भव्यता लिए
सौंदर्य का सर्वोच्च
‘माँ
जिससे
श्रृंगारित हो गया,
मेरा सम्पूर्ण ‘जीवन’।
………
-डॉ प्रतिभा सिंह परमार राठौड़
माखननगर((बाबई)म.प्र.
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देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।

हार्दिक धन्यवाद ‘युवा -प्रवर्तक’ (देवेंद्र भैय्या) कविता को स्थान देने हेतु।?