

शरारतें
बचपन की ही शोभा हैं शरारतें
बालकों का एक हक है शरारतें
स्वच्छंदता का भी एक है पर्याय
स्वाभाविकता..से भी अभिप्राय
घट गया अब शरारतों का जोड़
लग गई प्रतियोगिताओं में होड़
आँगन गाँवों का क्यों सूना है ?
पर दर्द शहरों का तो दूना है !!
कंधों पर बसता भारी-भारी !!!
वे करते स्कूल जाने की तैयारी
कहो,कैसे युग में ये जी रहे ??
निश्चल बचपन को लील रहे !
सुबह दोपहर विद्यालय में पढ़ते
संध्या को ट्यूशन भी है छलते
बस ,भाग दौड़ में भोजन खाते
वे मात-पिता को पाठ सुनाते ।
युवा प्रौढ़ को शरारत ना भाती
वृद्धावस्था अनुभव ..की थाती
कहो !कौन अवस्था है हकदार
शरारतें बाल्यावस्था है दावेदार
बाल केंद्रित हो चुकी है शिक्षा
शरारतों की मिलती ना भिक्षा
इन पर हो बच्चों का अधिकार
इस तथ्य को करना स्वीकार ।
संतोष कुमारी ‘संप्रीति’
दिल्ली
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देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।

बहुत सुन्दर रचना