

शुक्रवारीय स्तम्भ
सबक-ज़िन्दगी के
देर न हो जाये
जब हम युवा होते हैं तो नए लोगों से मिलने में एक अलग जोश और उत्साह रहता है,युवा अक्सर बड़े ग्रुप में रहते हैं, और उम्र के इस पड़ाव पर व्यक्ति सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण दोस्तों को ही मानने लगता है। हर इंसान की ज़िंदगी का यह सबसे खूबसूरत दौर होता है,जिसमें जीवन अपार संभावनाओं और खुशियों का एक कभी न खत्म होने वाला एक सिलसिला लगता है। लेकिन जैसे – जैसे उम्र बढ़ती है,हम सिमटने लगते हैं अपनें दायरों में।अब गहरी दोस्ती जैसे एक -दो रिश्तें ही हमें पर्याप्त लगने लगते है…. बाकी सब केवल कार्य – व्यापार से जुड़े “परिचित” रह जातें हैं। जिनसे बातें तो होती हैं पर मन न जुड़ता न खुलता….नए लोगों से मिलने का वो उत्साह भी अब नहीं रहता, क्योंकि ज़िन्दगी अब तक हमें परिपक्व बना चुकी होती है।दुनियादारी कुछ -कुछ समझ आने लगती है।मन अब केवल उन लोगों से जुड़ना चाहता है जो हमारी ताकत बन सकें, जो हमारें बौद्धिक विकास में सहायक हो।जिनसे मिलकर मन को सुकून मिलता हो,प्रेरणा मिलती हो…या जीने की चाह बढ जाती हो।
किन्तु कुछ लोगों में उम्र के इस पड़ाव में भी जीवन के पुराने अनुभवों के चलते रिश्तों के प्रति एक अस्थिरता – आशंका सी बनी रहती है। ऐसे लोग उम्र में जितना बड़े होते जाते हैं मन से उतने ही अड़ियल,जिद्दी या कहें कि बच्चे होते जाते हैं। ऐसे लोगों के लिए रिश्तें निभा पाना एक चुनौती हो जाता है, क्योंकि वो सबकों अपने मनबुताबिक ही चलाना चाहतें हैं, और जब कोई उनके मनबुताबिक प्रतिक्रिया न करें तो उससे दूरी बना लेते हैं। अपनी जिद्द,अड़ियलपन और नकारात्मक अनुभवों के चलते जीवन के सच्चे रिश्तों से भी दूरी बना लेते हैं।उनके लिए अपना अहंकार और निजी स्वार्थ इतना अहम हो जाता है कि उन लोगों को भी छोड़ देते हैं जिन्होंने मुश्किल वक्त में उनका साथ दिया होता है । उन्हें लगता है कि लोगों में अपनापन और विश्वास तलाश लेना कोई बड़ी बात नहीं, कि हमें तो कोई भी मिल जाएगा। लेकिन ऐसा होता नहीं। दुनिया में मिलने वाला हर इंसान आपका दोस्त भले बन जाये,किन्तु हितचिंतक नहीं बनता। ऐसा कम ही होता है कि आपको -आप जैसा ही कोई मिल जाए, जो आपके कहे – अनकहे को भी सुन ले…. जो बिना कुछ मिल जाने की उम्मीद के भी आपके लिए कुछ करने को आतुर हो,आपको सुनने को बेताब हो। तमाम सांसारिक सफलता या धन के दम पर भी व्यक्ति ऐसे हितचिंतक नहीं खरीद सकता। इसलिए जीवन में मौजूद ऐसे रिश्तों की कद्र कीजिये। एक बार ऐसे आत्मिक रिश्तों को खो दिया तो उस खालीपन को कोई नहीं भर पाता! रह जाती है तो यादें और अफसोस! कहते हैं “ज़िन्दगी के सफर में गुजर जातें है जो मक़ाम, वो फिर नहीं आते”…. जीवनभर पश्चाताप में जीने से बेहतर है समय रहते सम्हल जाइये…. और पुराने अनुभवों के आधार पर नए रिश्तों को मत परखिये।
डॉ.सुजाता मिश्र
असिस्टेंट प्रो.हिंदी विभाग
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देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘ युवा प्रवर्तक ‘ के प्रधान संपादक हैं। साथ ही साहित्यिक पत्रिका ‘ मानसरोवर ‘ एवं ‘ स्वर्ण विहार ‘ के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है।

बहुत बढ़िया लेख