
*बसंत~बहार*
चले मदन के तीर शीत में,
तरुवर त्यागे पात सभी।
रवि का रथ उत्तर पथ गामी,
रीत प्रीत मन बात तभी।
व्यापे काम जीव जड़ चेतन,
प्राकत नव सुषमा धारे।
पछुवा पवन जलद के संगत,
मदन विपद विरहा हारे।
बसंत बहार, रीत सृष्टि की,
खेत फसल तरु तरुणाई।
हर मन स्वप्न सजे प्रियजन के,
मन इकतारा शहनाई।
प्रीत बसंती,नव पल्लव तरु,
मन भँवरा इठलाता है
मौज बहारें तन मन मनती,
विपद भूल सब जाता है।
ऋतु बसंत पछुवाई चलती,
मौज बहारें चलती है।
रीत प्रीत के बंधन बनते,
विरहन पीड़ा पलती है।
बासन्ती ऋतु फाग बहारें,
क्या गाती कोयल काली।
कुछ दिन तेरी तान सुरीली,
ऋतु फिर लू गर्मी वाली।
देख बहारे भरमे भँवरा,
समझ रहा क्या मस्ताना।
बीतेगी यह प्रीत बहारें,
भूल रहा आतप आना।
फूलों पर मँडराती तितली,
मधुमक्खी भी मद वाली।
भूल रही मकरंद नशे में,
गर्मी की ऋतु आने वाली।
मानव मन भी मद मस्ती में,
करें भावि हित मति भूले।
गान बसंती फाग बहारें,
चंग राग तन मन झूले।
अच्छे लगते मन को भाते,
बासंती ये फाग फुहारें।
कोयल चातक,तितली भँवरे,
अमराई में बौर बहारें।
खुशियाँ भी लाती कठिनाई,
मन इसका भी ध्यान रहे।
आगे गर्मी झुलसे तन मन,
झोंपड़ियाँ विज्ञान कहे।
चार दिनों की कहे चंद्रिका,
राते घनी अमावस वाली।
करें पूर्व तैयारी मानव,
मुरझे क्यों कोई डाली।
कहे बसंती यही बहारें,
विपद पूर्व तैयारी की।
ऋतु बहार में श्रम कर लेना,
महक रहेगी क्यारी की।
केवल हमने लूट बहारे,
हित धरती का नहीं किया।
अपने हित में जीवन जीकर,
पर हित कुछ क्यों नहीं दिया।
मानव हैं मानवता के हित,
गाएँ गीत बहार सखे।
बासंती यह रीत पुरानी,
रीत प्रीत सौगात रखें।
. ………..
©
बाबू लाल शर्मा “बौहरा”
सिकंदरा,303326
दौसा,राजस्थान,9782924479
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